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Friday, December 10, 2010

ताउम्र सवालों के मुक्कदम्मे
दिलों में लड़ते रहे
जवाबों की गठरी दर्द में छुपा
आप हमें हराते चले गए

Wednesday, November 17, 2010

हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

गर्माहट भरी मुस्कराती धूप में शर्माती लाल वो जाड़े की हर सुबह
आगोश में सिमटकर कानो में हलके से हंसाती वो कहानियां
जब साथ आँखें मूंदकर देखे सपनो से काफूर हो जाती ठिठुरन
और हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

हर रोज़ नयी तस्वीर बनाती हूँ आँखों की ओस से रंग चुराकर
रंगसाज़ से सजाती अल्हड बनाती मुझे आपकी झोली भर अशर्फियाँ
लफ्ज़ नहीं कर सकते इन्साफ बयां इस ख़ामोशी के इकरार का
क्योंकि हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

अपरिपक्व समझ दामन से बांधे दुनियापरस्ती से दूर तलक
मखमली एहसास से हथेली छुड़ाती उँगलियों की नटखट रवानियाँ
साथ गाये गीतों में ढूँढती हमारी मदमस्त परछाईयों की झलक
यूँ ही हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

होठों की कश्ती किनारों से दूर बहाती अरमानो की लहर
इठलाती है फलक पर डूबते सूरज की पलकों पर बिछी नादानियाँ
दिल में धडकने छुपाये कशमकश भरी संवेदनाओ को भेद रहे नज़रो के कहर
अब तो हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

इतने रूपों में विभोर करती पंख देकर उडान लेती ये मस्तानियाँ
आज फिर गुस्ताखी में एक याद बन गयी आपकी बदमाशियां

Monday, November 15, 2010

गुनगुने झागों में नाराज़गी जताती चुटकी-भर घुली मिठास
उस चीनी प्याले से उठ रही तन्हाई की खुशबू में
एक तरावट की गुंजाईश में बुदबुदाते नशे में लिपटे
आज फिर उमड़ आया प्यार अपनी ही नादानियों पर

Tuesday, October 12, 2010

रेफेरेंस पॉइंट


सांवली शाम धीरे से काली रात के आगोश में समाने जा रही थी| लेकिन अभी भी उसका सलोना सौंदर्य मुझे विस्मित कर रहा था| चांदनी उतनी ही हैरानी से उजली हो रही थी जैसे उसके उजले चेहरे की सुर्ख मुस्कराहट | ऐसे ही समय में मुझे उसकी याद बरबस आ जाती थी| कई बार कुछ गाने तो कभी दोस्तों से बतियाते हुए मिले "रेफेरेंस पॉइंट'...! कई बार कुछ रिश्ते ज्यादा बातूनी होते हैं| मेरा भी शायद बातूनी ही था लेकिन बातों का दौर दफतन ही शुरू नहीं हुआ था| समय लगा था, सिहरन-सी हुई थी, दर्द महसूस हुआ था, शर्म भी आई थी और ख़ामोशी से उसकी आँखों ने इकरार किया था|

खैर, उस रूमानियत की याद तब ताज़ा हो गयी जब उसी कैफ़े के आगे से गुज़रा जहाँ एक नादान जवान शाम साथ बितायी थी मीठी बातों और कॉफ़ी के गरम चस्के के साथ | समां ही कुछ ऐसा लगता था- इश्क हवाओं में है और मैं पूरे वेग से उसकी आँखों की गहराईओं में डूब रहा हूँ | ऐसी उपमा देना बहुत आसान है| अंग्रेजी में लोग इससे "so cliched" कहते हैं | लेकिन ये संस्कृति हमें बॉलीवुड ने सालों से दी है| अपने शहर से उसको मिलने के लिए ट्रेन पकड़ के आना बेवकूफी नहीं थी, उसका इंतज़ार करते हुए नीले आसमान की फलक पर सपने उकेरना, बार-बार फोन देखना की शायद एक मेसेज ही कहीं से अवतरित हो जाये और न जाने क्या क्या- भी मेरी नज़र में पागलपन नहीं था| प्यार जितना होर्मोंस का खेल है उतना ही जज़्बात से भरा है| चाहत "Procreation" के लिए होती है लेकिन पूरी दुनिया में एक वही शख्स वही आवाज़ वही गूँज वही कनखियों से इतराती आँखें वही बालों की खुशबू - वोह ही क्यूँ? कोई और क्यूँ नहीं? सोचते सोचते सामने लगे LED स्क्रीन पर नज़र पड़ी| चटकीले रंगों में कोई विज्ञापन चल रहा था| लैपटॉप का एडवरटीजमेंट था | वही साइज़ जीरो वाली हेरोइन जो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं| सोच ही रहा था की वो आ गयी- भरी भरी सी कमसिन आकृति सामने से उभरी ठीक सबवे से ऊपर आते हुए | समय जैसे शून्य हो गया| आँखों में आँसूं आ गए लेकिन नयनो का जलाशय भरा नहीं| धडकनों की आवाज़ इतनी तेज़ थी की लगा कहीं आस-पास वालो को सुनाई न दे| सब ख्वाब जैसा था- जज्बातों का उमड़ता सैलाब| कुछ लम्हों तक सिर्फ उसको देखता ही रहा - वोह मुझे देखकर धीरे से हँसती रही...आँखें नीचे की..उसकी बैचनी और डर दोनों झलक रहे थे| उसके आगे के दो दांत गिलहरी से थे ...

कालेज में पढ़ा था सआदत हसन मंटो को "किसी लड़के को लड़की से इश्क़ हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं देता"...मुझे लगा था की क्या वाहियात बात की है| आज जब वैसी ही शाम में बैठा था, उसी कैफ़े के सामने तो नज़र पड़ी वहीँ पटरी पर चमकते हुए झोलों को बेचती उसी शाम वाली औरत पर| उसका बेटा अब शायद दो साल का हो गया था वो भी पास में ही खेल रहा था| वो कुछ ही दूरी पर बैठी थी जहाँ मैं रूककर बैठ गया था| उसको देखकर याद आया की कैसे उस दिन कैफ़े से बाहर निकलते हुए मुझे उसके दूध पीते पतले दुबले बच्चे पर दया आ गयी थी- मैंने उसे रुपए देने चाहे थे| पटरीवाली ने मुझे घूरते हुए बोला था साहब भीख नहीं लूंगी कुछ खरीद लो| मेरा इशारा समझ कर वो शोख अदा में बड़ी बेबाकी से बोली मैं खरीदूंगी और मैं ही पैसे दूँगी| मुझे "MCP" कहकर चिढाती थी| दिल्ली के विख्यात फेमिनिस्ट कालेज से जो थी| आज मैं यादों में खोकर अजीब सी मुस्कान से उस पटरीवाली को देख रहा था| उसने मुझे देखा और कड़े से शब्दों में टोका- 'नए हो क्या दिल्ली में?' फिर मुझे ध्यान से देखने लगी| मुझे लगा शायद पहचान गयी| फिर बोली - झोले ले लो साहब दिल्ली के बुद्धिजीवी यही खरीदते हैं | नज़र दौड़ाई लेकिन जैसा रंगीन झोला उसने खरीदा था वो मिला ही नहीं| मिलता तो ले लेता| शायद वैसा एक ही बना था|

फिर कैफ़े का दरवाज़ा खुलने से अन्दर से AC की हवा बाहर आई| ध्यान उसी जगह पर चला गया जहाँ मैं उसके साथ बैठा था| आज वहां दो विदेशी आदमी बैठे थे| उनके हाथों में गाइड बुक थी दिल्ली की| उस शाम उसकी उँगलियाँ मेरी उँगलियों को छू रही थी| मैं उसे बता रहा था की कैसे मेरे शहर में एक ही मॉल है और कैसे वहां सडको पर बिना हेलमेट के लोग पूरी रफ़्तार में बाइक चलाते हैं| उसने पूछा की तुम भी चलाते हो बिना हेलमेट के तेज़ रफ़्तार में? मैंने कहा नहीं मेरी बाइक में डिस्क ब्रेक हैं | फिर वो हँसी और बोली जब तुम बोलते हो तो तुम्हारे नीचे वाले होठ हिलते है ऊपर वाले सिर्फ स्थिर रहते है| मैंने सोचा मेरी बुल्लेट (मेरी बाइक जो उसे ज़रा भी पसंद नहीं थी) से बात हठकर मेरे होठों पर कैसे आ गयी? यह उसकी एक और रवानगी थी- वो इतने रंगों से भरी हुई थी- इतनी इन्द्रधनुषी बातें सिर्फ वही कर पाती थी| मैं बस उसको चपलता को पसंद- बहुत पसंद करता था| उसने कहा यही खूबी जिसमे बात करते समय सिर्फ नीचे के होंठ हिलें, राजसी शान की निशानी है, इंग्लैंड में राजा और उनके वंशज ऐसे ही बोलते है| बिलकुल तुम्हारी तरह! आज भी कई बार आईने में देखता हूँ की क्या मैं भी वंशज लगता हूँ कहीं से?

शाम विलीन हो रही थी रात में - थोड़ी ठंडक थी- लेकिन यादों की गर्मी जला रही थी अन्दर- पता नहीं सुकून दे रही थी की क्षीण कर रही थी| पीछे मुड़कर फिर उसी टेबल पर नज़र रुकी| अब वहां एक लड़का और लड़की बैठे थे | लड़की कुछ बोल रही थी फिर सिर हिला रही थी| लड़के के चेहरे पर नए प्यार का खुमार चिपका था| मैंने उसके इश्क को ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं दी| लडकी को दोबारा देखा- उसके आगे के दांत गिलहरी से थे...

Tuesday, July 6, 2010

5 जुलाई का भारत बंद


अरे महंगाई क्या किया हरजाई !
जनता के नाम से की अगुआई
यहाँ शोर मचा, वहां आग लगायी
और विपक्ष से निकल पड़े लेफ्ट- भाजपाई

धरना प्रदर्शन, चीख पुकार
फेंके पत्थर, तोड़ी बसें हज़ार
चक्का जाम , करोडो का नुक्सान
क्या इससे गरीब के हिस्से आई मुस्कान?

भारत बंद या बंद भारत का आह्वान
पर महंगाई की ओट में अपना गुणगान?
कौन करे इस बंद का भुगतान?

मंदी से पैदल है अर्थ-व्यवस्था
उसपर निठल्ली सरकार की सुप्त-अवस्था
महंगा राशन, न फसल, न खेती
हर तरफ सिक रहीं बस राजनीतिक रोटी

अरे नेताओ शांत प्रदर्शन करके दिखाओ
कभी प्रभात फेरी, पद यात्रा भी आज़माओ
भूख हड़ताल है बेहतर तरीका
बिन कामकाज रोके प्रदर्शन का सलीका

आमरण अनशन से शक्ति प्रदर्शित करने का दौर कुछ और ही था
ऐ.सी. में सैर करते भ्रष्ट रस में डूबे नेताओ का असाधारण आम-आदमी प्रेम कुछ और ही है!

Monday, June 14, 2010

गंतव्य


एक कौंध सी गिरी वो
मिथ्या के कम्पन में आहट हुई
मन में उठती चुप्पी धीरे-से खुली
अथाह अमर श्रोता-सी भौचक्क मानसी

असीमित आस्था का सागर-मंथन हुआ
आवाज़ का पराग फूल-सी रूह को चख गया
सृजन हुआ, निर्भय मन हुआ

कुछ संकोच में, कुछ कल्पना में
गीत-सी मदमस्त वह निरंतर बढती रही
अब ठिठकन न थी, पड़ाव-दर-पड़ाव
अनाम सम्प्रेषण और आलौकिक शब्द-जाल

दरख्तों से निकलती रौशनी जलाने लगी
गति-शब्द-चाल में वो रूपक सी व्यक्त हुई
अर्थ-निरर्थ, उन्मुक्त-बाध्य
रंगमंच अनावृत करता उसका गंतव्य

Saturday, June 12, 2010

न सावन हरे न भादों सूखे


(इस रचना में मुहावरों और प्रचलित लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग किया गया है)

ज्योंही श्रीमान नाथूराम चूरन प्रसाद नाई की दूकान से सर मुंडवा कर निकले त्योंही आसमान से ओले बरस पड़े | अब गली-कूचो से तमाशा देख रहे बच्चे हँसते-हँसते लोटपोट हो गए| लेकिन हमारे गाँधी-भक्त चूरन प्रसाद जी आँखें फेरकर गुस्सा पी गए| नाथूराम जी इधर-उधर की हांकने के बजाये बड़े ही शांत स्वाभाव के व्यक्ति ठहरे| किसी के कान भरना किसी पर कीचड उछालना या किसी की राह में कांटे बिछाकर अपना कलेजा ठंडा करना उनकी बस की बात कहाँ ! वो बस अपनी खिचड़ी अलग ही पकाते|

टपाटप ओलों से होती दुर्दशा देख खान चाचा ने उन्हें अपनी छतरी के नीचे सर छुपाने का आमंत्रण दिया| ज्यादा अगर-मगर न करते हुए वह खान चाचा की बात मन गए| मुंह से निकला 'थैंक यू' जो किसी गागर में सागर से कम थोड़े ही था| "मियां अब तो ईद का चाँद हो गए हो, अब तो चिराग लेकर ढूढना पड़ता है|"

"बस यूं ही" दो टूक जवाब दे दिया|

"फिर भी सावन में बाल हटवा कर उलटी गंगा क्यों बहा रहे हो?" खान चाचा ने पूछा| पहले तो नाथू राम जी ने आँखें चुरा ली फिर दबे स्वर में बोले- "शोक में"|

"अमां किसके शोक में? "

"मेरे साले के ससुर के चाचा के पुत्र के बहनोई चल बसे"| "ओह हो हो" खान चाचा को मिटटी के माधो नाथू राम पर खूब हंसी आई परन्तु हवा का रुख पहचानते हुए बोले- " या अल्लाह! अनहोनी कब हो जाये पता नहीं चलता| बहुत ही करीबी रिश्तेदार मालूम पड़ते थे|"

"नहीं| लेकिन जब सभी उनके स्वर्ग सिधारने पर सब फूले नहीं समा रहे तो मैंने सोचा मैं ही शोक मन लूँ|"

"ख़ुशी? भई क्यों?"

"असहनीय कवि थे - नाम था छप्पन भोग" नाथू राम बताने लगे-

"पर ऊँची दुकान फीका पकवान| जहाँ जाते वही जीत आते क्यूंकि बाकी सभी कवि रफूचक्कर हो जाते| उनकी कवितायें भी ढाक के तीन पात सामान होती|
एक महाकाव्य संगोष्ठी में कविता की कुछ मुरझाई पंक्तियाँ ऐसे सुनाई-
दिल में लगी सुई ...दिल में लगी सुई
ऊई ऊई उई ....

उनके कवि सम्मेलनों में तांता बंधने के बजाय आयोजको के लिए भागने और डूब मरने की नौबत आ जाती| कोई भी उनकी कविताओं की धज्जियाँ न उड़ा पाता| बस सब दुम दबाकर भाग खड़े होते| न तो वे किसी निन्यानवे के फेर में पड़े थे न ही किसी को नीचा दिखाना चाहते थे बस कविता-रुपी परायी आग में कूदना चाहते थे| फिर भी घरवालों और पड़ोसियों की नींद हराम कर दी| घरवालो और श्रोताओं ने उनके स्वर्ग सिधारने की प्रार्थना ही नहीं प्रयत्न भी किये|

खूब पापड़ बेले, खून-पसीना एक किया| यहाँ तक की धरना भी दिया| ज़हर देते तो उनका उपवास हो जाता , सुपारी देते तो किसी और बन्दे का नामो-निशां मिट जाता परन्तु छप्पन जी का बाल भी बांका न होता| जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय |"

"फिर काल के ग्रास में कैसे समाये?" खान चाचा ने पूछा|

" कविता के चक्कर में ही! बालकनी में बैठे कविता लिख रहे थे| एक तेज़ हवा का झोंका आया और सारे कागज़ उड़ा ले गया| जान से ज्यादा प्यारी कविता की यह दशा देखी न गयी| खुद भी सांतवे माले से 'बंजी-जम्प' कर बैठे बिना रस्सी के|

होनहार बिरवान के होत चिकने पात| हाथ में कविता का कागज़ तो आया पर फिर कभी होश नहीं आया|

कविता की हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ कुछ यूं थी-
साल बीत जाता है
फिर आती है होली
तंगहाली कम न थी
उसपर भी तुमने कुर्ती भिगोली
अब सर्फ़ पावडर कहाँ से लाऊंगा?
घडी डीटरजेंट से ही काम चलाऊंगा"

घर पहुँच कर खान चाचा विचारने लगे- नाथूराम का पूरा कुनबा ही विचित्र है- न सावन हरे न भादों सूखे|

Monday, June 7, 2010

प्रियतमा राजगद्दी


प्रियतमा राजगद्दी,

जबसे होश संभाला है बस तभी से तुम्हारे सत्ता-रुपी यौवन ने ऐसा लूट लिया है मानो छपरा के किसी गाँव से बाहुबलियों ने चुनावों के मौसम में मतपेटी लूट ली हो|

तुम्हारे आसन पर विराजमान होने का सपने तो मैंने बचपन में ही देख लिया था | इसलिए तो फरेब और फेरबदल जैसे राजनैतिक हथकंडे लड़कपन से ही अपनाने शुरू कर दिए थे| चालबाजी में परिपक्वता पाने और जालसाजी में दक्षता हासिल करने के बाद पता चला की मुख्यधारा में युवाओ का प्रवेश उतना ही वर्जित था जितना मंत्री जी के काफिले मैं किसी आम आदमी के दुपहिये का| यहाँ तो सफेदपोश होने के लिए सफ़ेद बाल होना बहुत ज़रूरी है| तुम्हारे वशीकरण के चलते मैंने भी हार न मानी| स्कूली शिक्षा ऐसे निपटाई जैसे रिश्वत का पैसा हो| कॉलेज की दहलीज पर जिस भी विषय में दाखिला लिया हो, मकसद तो तुम ही थी | बस अपना तन-मन-धन तुमपर न्योछावर कर चुका था|

खैर , तुम्हे पाने के उतावलेपन में हमें कॉलेज के लेक्चरों के बजाये छात्रनेता बनकर मीटिंग गठित करना ज्यादा तर्कसंगत लगा| तीन -चार साल की मेहनत और कपटी प्रयासों के चलते छात्र-संघ चुनावो में जोर आजमाने का मौका मिल ही गया| इसी औपर्चुनिटी का ही तो इंतज़ार था| अब क्या था, छात्रों की समस्याएं सुनी (हालाँकि सुलझाई नहीं), हाथ मिलाये, छप्पन भोग कराये, गोविंदा की फिल्मों के टिकेट बांटे , खूब पैसा उडाया | लेकिन अंत भला तो सब भला - छात्रनेता बन ही गए| पहली बार तुमसे विवाह क्या हुआ , हनीमून कभी ख़त्म ही न हुआ|

पढाई लिखाई से तो वास्ता तभी छूट गया था जबसे चुनावी घोषणा-पत्र में बेहतर शिक्षा व्यवस्था के झूठे वादे किये थे | अमां वायदे निभाना हम जैसे नेताओं के बस में कहाँ? खैर धीरे-धीरे राजनीतिक गलियारों में हमारे नाम की भी गूँज उठने लगी| पूरे गाजे बाजे के साथ पार्टी वालों ने ससुराल में स्वागत किया! भ्रष्ट नीतियों के चलते जल्द ही तुम्हारे नए नए रूपों का स्वाद चखा| कार्यकर्ता से युवा पार्टी की अध्यक्षता, कोषाध्यक्ष , प्रवक्ता, सचिव और प्रमुख नेता के ओहदे पर तुम्ही ने सहारा दिया| उगाही से, साख से, पहुँच से, जालसाजी और कालाबाजारी से अपने और पार्टी के लिए इतना धन कमाया की सभी ने मुझे हाथों-हाथ लिया|

चुनाव आये लेकिन पार्टी हार गयी| कोई बात नहीं| सिर्फ तुम्हारी गरिमा बनाये रखने के लिए दल बदल लिया| दल क्या बदला, किस्मत ही बदल गयी| फिर क्या फर्क पड़ता है की विचारधारा ही बदल गयी हो! मार्क्सवाद हो या उपभोक्तावाद , राजनेता के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं| पहले एम.एल.ऐ फिर एम. पी. बने| जनता-जनार्दन के मसीहा| ताकत , पैसा, पहुँच और लाल -सलाम सभी मिला | बड़े-बड़े पोस्टरों पे हाथ जोड़े मुस्कान उकेरे खड़ा था, तुम्हारे ऊपर बैठने की चाह में|

भाषणों में कभी धर्मं-सम्प्रदाय के नाम पे उकसाया तो कभी विकास की बड़ी बड़ी डींगें हाकी, तो कभी विरोधी दल पर आरोप लगाये, कीचड उछाला | लेकिन जब चुनावो में किसी को भी बहुमत न मिला तो दो-चार दलों का गठबंधन बनाया और हो गए तुमपर आसीन| देश तो भगवन भरोसे से चल ही रहा था तो एक्स्ट्रा मेहनत की क्या ज़रूरत ?

हाँ कभी कभार भ्रष्ट होने के छींटे हमपर भी पड़े लेकिन सब तुम्हारी ही माया थी की टेबल के नीचे की कमाई का लोभ लोगों में जिंदा है और खूब फलता फूलता है | हमें इस लोभ का निजी फायदे के लिए भरपूर इस्तेमाल करना आता है | तुम तो हमारी हुई ही साथ ही पुलिस, कोर्ट-कचहरी, सेना और शासन-तंत्र को दहेज़ में ले लाई|

बस एक गलती हो गयी! मीडिया कब बेकाबू हो गयी पता ही नहीं चला| शराब और शबाब के साथ स्टिंग ऑपरेशन टीवी पर दिख गया| उनकी तो टी.आर .पी. बढ़ गयी पर मेरी सरकार ढेह गयी| इस्तीफ़ा दिया, सत्ता भी गयी साथ ही पुरानी दबी फाइल खुलवा दी गयीं |

आज जब हम जेल के इस स्पेशल एयर कंडीशंड रूम में बैठे यह प्रेम-पत्र लिख रहे हैं, तो आशा तो यही है की जल्दी ही बा-इज्ज़त बरी होकर तुम्हारी गद्दी पर फिर से बैठेंगे| यहाँ तो हर राजनेता का अतीत होता है और हर अपराधी का भविष्य| हमारा तो अतीत भी तुम ही थी और भविष्य भी तुम ही हो| आशा करता हूँ तुम भी मेरे बिन ज्यादा दिन न रह पाओगी और सत्ता-सीन पार्टी का तख्ता -पलट कर दोगी |

सत्ताभिलाषी तुम्हारा प्रिये ,
पूर्व मंत्री-जी |

अभिलाषा

शौर्य की महिमा है ऐसी
गाथाएं भी यही है कहती
वीरगति जो नर दे जाए
सच्ची आहुती वही चढ़ाये
कायरों ने भी क्या कभी
रस्सी से तोडा पत्थर को?
शौर्यवान वो मानव जिसने
सारे बंधन तोडके जिसने
सच्ची लगन और आशा लिए
कदम बढ़ाये आकाश को छूने
वीर वही जो हँसते हँसते
विष को अमृत मानकर पीले
अन्यायों और दंशों के खिलाफ
जिसने उठाई बुलंद आवाज़
जिसने तोड़ी रुढियों की बेडिया
और रच डाला नया इतिहास
प्रताड़ित और कुंठित समाज में
जिसने उठाई बुलंद आवाज़
जिसने उठाया नारा ऐसा
जोश भरा था कुछ ऐसा
उठ गयी रूहों में ज़िन्दगी
जग गयी मृतकों में बंदगी
मैं,
मैं हु चंचल, सौंदर्य चितवन से परिपूर्ण कमल,
पर हूँ अभिलाषी
करना मेरी बात पर अमल
मुझे तोड़ देना वनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जायें वीर अनेक
(इस कविता की अंतिम चार पंक्तियाँ श्री माखनलाल चतुर्वेदी की कविता से ली गयी हैं. यह वीर रस की कविता उनको समर्पित है)

Wednesday, April 28, 2010

बिरहा की जलन
तपन
ज़ख्म
क्षणभंगुर श्रृंगार की परत
अँधेरी काली घटा
कमबख्त ख़ामोशी
कजरारी मेघा
सिलसिला थमता नहीं
नज़र या दुआ?
दास्ताँ
विराम

Monday, March 29, 2010

एक कसक है जो चुभ रही एक आग है जो धधक रही

एक कसक है जो चुभ रही

एक आग है जो धधक रही

सर्द हवाओं की ठिठुरन में

व़ोह धूप मैं नरमी ढूँढने की

पिघलते मोम सी नाज़ुक

वोह मन में दबी उलझन की

माँ के स्पर्श की कोमलता में

खिलखिलाते बचपन के चहकने की

ओस की बूँद सी शीतल

व़ोह झुलसी आह थमने की

आत्मा की संवेदना सी पवित्र

नींद में मुस्कान बिखेरने की

एक कसक है जो चुभ रही

एक आग है जो धधक रही


ये भी क्या बात हुई जीने में

सिसकियों की बाढ़ में
वोह बहता अल्हड़पन
लौटाया यह क्या नजराना
मिले दुनियाभर के ग़म
कानो में चिल्ला रही ख़ामोशी
बुलंद कर रही तेरी आवाज़
आँखों में उजली मायूसी
अब भी दिखा रही सपने हज़ार
ये भी क्या बात हुई जीने में
जब वास्ता ही न रहा इस महफ़िल से

यह दर्द शायद दुखता कम

बदलाव के इस पतझड़ मौसम में
यादों में यूं होकर गुमसुम
आँखों में भरकर नमी जो
रोक पाने में हूँ नाकाम
याद बरबस आती है
हर पल हर सांस
झुट्लाती है ये दिन ये मंज़र
न बनता खून यूं आंसू
यह दर्द शायद दुखता कम
घुट चुका है दम, रुक रही है सांसें
लाचार हूँ, नाकाम हूँ
क्यों है यह अकेलापन?

जादू का यह अंत होगा

इस तिलिस्म का राज़ क्या है?
क्यों कोहरे से ढका है उजाला
क्यों भीतर छुपा है इंसान तेरा
व्यस्त ज़िन्दगी की फ़िराक में
क्यों दम तोड़ते हैं सपने
क्यों मन में है एहसास अनछुआ?
मंद आवाजें ले रही नयी करवट
क्या दिल की दस्तक छटपटा कर
रुक रही है किवाड़ पर?
कुछ दिख रहा है इससे परे
नज़र गड़ाये उस अँधेरी उलझन में