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Wednesday, March 28, 2012

रेखाएं
सीमान्त की धुरी पर
सीधी समझ से परे झुककर
उलझ कर बन जायें
वक्र

कैद

मन के रूपक
में व्यक्त होती विषयी
सूक्ष्म लौ में जलती
उन्मुक्त

एकतरफा
ओस से भीगा
नैसर्गिक उन्माद के आवेश में
पेड़ पर आये पत्तों सा
स्वाभाविक

विश्वास
संवेदना के अक्ष पर
झूलता डगमगाता विधि के
दोराहों पर चुनता
आघात

Friday, March 23, 2012

आज कुछ  समां ऐसा  है कि अपनी 
गुस्ताखियों पर गर्दन झुक रही  है
और  जनाब की  रूमानियत  ने 
शर्मसार कर दिया है
ऐसा भी  क्या मर्ज़ और पागलपन  है 
कि  कुछ  लफ़्ज़ों में  बताना  नामुमकिन  है 
कि  दर्द  से  आँखों  के  कोनों  में  ओस  ने 
पैर  पसार  लिए  है
मेरी  सुबह  की  उम्मीद  करने  से  क्या
इतेफाक रखता है  
रात  की  स्याही  बिखेरने वाला