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Sunday, March 20, 2011

रवीश जी के साथ गुफ्तुगू


यह लिबास पुराना सा


सुगंध भरी साँसों की गर्मजोशी में
बयां हो रही रवानगी नए ख्वाब की
प्रत्युत्तर में खामोश कल्पनाओ के
मध्य में सारा आकाश बिछा है

कभी पलाशों के गुलिस्तान में
निर्झर सा बहता है मन मेरा
नज़रों की सुरंग के पीछे
सदियों में बीता आलोक छिपा है

धूप लगी है रूह के आँगन में
लालिमा से राग सुलगा लेना
उलझी सीढियों पर पाँव पसारे
इस शून्य में ब्रह्माण्ड रुका है

कैसी कोठरी के भीतर ढूँढा
यह लिबास पुराना सा
चार पहर के अंत हुए हैं
समझौते में सम्मान टिका है

कभी ठहराव कभी खींचतान है

कभी ठहराव कभी खींचतान है
कभी दास्ताँ तो कभी विराम है
कभी रुकी सी हवा कभी पुरवाई का अभिमान है
कभी अतीत का निशान कभी सोच की उड़ान है
कभी राहेगुज़र में तू हमसफ़र है तो
कभी यह कारवां अकेला अपना जहान है
कभी ठहराव कभी खींचतान है