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Monday, March 29, 2010

एक कसक है जो चुभ रही एक आग है जो धधक रही

एक कसक है जो चुभ रही

एक आग है जो धधक रही

सर्द हवाओं की ठिठुरन में

व़ोह धूप मैं नरमी ढूँढने की

पिघलते मोम सी नाज़ुक

वोह मन में दबी उलझन की

माँ के स्पर्श की कोमलता में

खिलखिलाते बचपन के चहकने की

ओस की बूँद सी शीतल

व़ोह झुलसी आह थमने की

आत्मा की संवेदना सी पवित्र

नींद में मुस्कान बिखेरने की

एक कसक है जो चुभ रही

एक आग है जो धधक रही


ये भी क्या बात हुई जीने में

सिसकियों की बाढ़ में
वोह बहता अल्हड़पन
लौटाया यह क्या नजराना
मिले दुनियाभर के ग़म
कानो में चिल्ला रही ख़ामोशी
बुलंद कर रही तेरी आवाज़
आँखों में उजली मायूसी
अब भी दिखा रही सपने हज़ार
ये भी क्या बात हुई जीने में
जब वास्ता ही न रहा इस महफ़िल से

यह दर्द शायद दुखता कम

बदलाव के इस पतझड़ मौसम में
यादों में यूं होकर गुमसुम
आँखों में भरकर नमी जो
रोक पाने में हूँ नाकाम
याद बरबस आती है
हर पल हर सांस
झुट्लाती है ये दिन ये मंज़र
न बनता खून यूं आंसू
यह दर्द शायद दुखता कम
घुट चुका है दम, रुक रही है सांसें
लाचार हूँ, नाकाम हूँ
क्यों है यह अकेलापन?

जादू का यह अंत होगा

इस तिलिस्म का राज़ क्या है?
क्यों कोहरे से ढका है उजाला
क्यों भीतर छुपा है इंसान तेरा
व्यस्त ज़िन्दगी की फ़िराक में
क्यों दम तोड़ते हैं सपने
क्यों मन में है एहसास अनछुआ?
मंद आवाजें ले रही नयी करवट
क्या दिल की दस्तक छटपटा कर
रुक रही है किवाड़ पर?
कुछ दिख रहा है इससे परे
नज़र गड़ाये उस अँधेरी उलझन में