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Monday, June 7, 2010

प्रियतमा राजगद्दी


प्रियतमा राजगद्दी,

जबसे होश संभाला है बस तभी से तुम्हारे सत्ता-रुपी यौवन ने ऐसा लूट लिया है मानो छपरा के किसी गाँव से बाहुबलियों ने चुनावों के मौसम में मतपेटी लूट ली हो|

तुम्हारे आसन पर विराजमान होने का सपने तो मैंने बचपन में ही देख लिया था | इसलिए तो फरेब और फेरबदल जैसे राजनैतिक हथकंडे लड़कपन से ही अपनाने शुरू कर दिए थे| चालबाजी में परिपक्वता पाने और जालसाजी में दक्षता हासिल करने के बाद पता चला की मुख्यधारा में युवाओ का प्रवेश उतना ही वर्जित था जितना मंत्री जी के काफिले मैं किसी आम आदमी के दुपहिये का| यहाँ तो सफेदपोश होने के लिए सफ़ेद बाल होना बहुत ज़रूरी है| तुम्हारे वशीकरण के चलते मैंने भी हार न मानी| स्कूली शिक्षा ऐसे निपटाई जैसे रिश्वत का पैसा हो| कॉलेज की दहलीज पर जिस भी विषय में दाखिला लिया हो, मकसद तो तुम ही थी | बस अपना तन-मन-धन तुमपर न्योछावर कर चुका था|

खैर , तुम्हे पाने के उतावलेपन में हमें कॉलेज के लेक्चरों के बजाये छात्रनेता बनकर मीटिंग गठित करना ज्यादा तर्कसंगत लगा| तीन -चार साल की मेहनत और कपटी प्रयासों के चलते छात्र-संघ चुनावो में जोर आजमाने का मौका मिल ही गया| इसी औपर्चुनिटी का ही तो इंतज़ार था| अब क्या था, छात्रों की समस्याएं सुनी (हालाँकि सुलझाई नहीं), हाथ मिलाये, छप्पन भोग कराये, गोविंदा की फिल्मों के टिकेट बांटे , खूब पैसा उडाया | लेकिन अंत भला तो सब भला - छात्रनेता बन ही गए| पहली बार तुमसे विवाह क्या हुआ , हनीमून कभी ख़त्म ही न हुआ|

पढाई लिखाई से तो वास्ता तभी छूट गया था जबसे चुनावी घोषणा-पत्र में बेहतर शिक्षा व्यवस्था के झूठे वादे किये थे | अमां वायदे निभाना हम जैसे नेताओं के बस में कहाँ? खैर धीरे-धीरे राजनीतिक गलियारों में हमारे नाम की भी गूँज उठने लगी| पूरे गाजे बाजे के साथ पार्टी वालों ने ससुराल में स्वागत किया! भ्रष्ट नीतियों के चलते जल्द ही तुम्हारे नए नए रूपों का स्वाद चखा| कार्यकर्ता से युवा पार्टी की अध्यक्षता, कोषाध्यक्ष , प्रवक्ता, सचिव और प्रमुख नेता के ओहदे पर तुम्ही ने सहारा दिया| उगाही से, साख से, पहुँच से, जालसाजी और कालाबाजारी से अपने और पार्टी के लिए इतना धन कमाया की सभी ने मुझे हाथों-हाथ लिया|

चुनाव आये लेकिन पार्टी हार गयी| कोई बात नहीं| सिर्फ तुम्हारी गरिमा बनाये रखने के लिए दल बदल लिया| दल क्या बदला, किस्मत ही बदल गयी| फिर क्या फर्क पड़ता है की विचारधारा ही बदल गयी हो! मार्क्सवाद हो या उपभोक्तावाद , राजनेता के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं| पहले एम.एल.ऐ फिर एम. पी. बने| जनता-जनार्दन के मसीहा| ताकत , पैसा, पहुँच और लाल -सलाम सभी मिला | बड़े-बड़े पोस्टरों पे हाथ जोड़े मुस्कान उकेरे खड़ा था, तुम्हारे ऊपर बैठने की चाह में|

भाषणों में कभी धर्मं-सम्प्रदाय के नाम पे उकसाया तो कभी विकास की बड़ी बड़ी डींगें हाकी, तो कभी विरोधी दल पर आरोप लगाये, कीचड उछाला | लेकिन जब चुनावो में किसी को भी बहुमत न मिला तो दो-चार दलों का गठबंधन बनाया और हो गए तुमपर आसीन| देश तो भगवन भरोसे से चल ही रहा था तो एक्स्ट्रा मेहनत की क्या ज़रूरत ?

हाँ कभी कभार भ्रष्ट होने के छींटे हमपर भी पड़े लेकिन सब तुम्हारी ही माया थी की टेबल के नीचे की कमाई का लोभ लोगों में जिंदा है और खूब फलता फूलता है | हमें इस लोभ का निजी फायदे के लिए भरपूर इस्तेमाल करना आता है | तुम तो हमारी हुई ही साथ ही पुलिस, कोर्ट-कचहरी, सेना और शासन-तंत्र को दहेज़ में ले लाई|

बस एक गलती हो गयी! मीडिया कब बेकाबू हो गयी पता ही नहीं चला| शराब और शबाब के साथ स्टिंग ऑपरेशन टीवी पर दिख गया| उनकी तो टी.आर .पी. बढ़ गयी पर मेरी सरकार ढेह गयी| इस्तीफ़ा दिया, सत्ता भी गयी साथ ही पुरानी दबी फाइल खुलवा दी गयीं |

आज जब हम जेल के इस स्पेशल एयर कंडीशंड रूम में बैठे यह प्रेम-पत्र लिख रहे हैं, तो आशा तो यही है की जल्दी ही बा-इज्ज़त बरी होकर तुम्हारी गद्दी पर फिर से बैठेंगे| यहाँ तो हर राजनेता का अतीत होता है और हर अपराधी का भविष्य| हमारा तो अतीत भी तुम ही थी और भविष्य भी तुम ही हो| आशा करता हूँ तुम भी मेरे बिन ज्यादा दिन न रह पाओगी और सत्ता-सीन पार्टी का तख्ता -पलट कर दोगी |

सत्ताभिलाषी तुम्हारा प्रिये ,
पूर्व मंत्री-जी |

अभिलाषा

शौर्य की महिमा है ऐसी
गाथाएं भी यही है कहती
वीरगति जो नर दे जाए
सच्ची आहुती वही चढ़ाये
कायरों ने भी क्या कभी
रस्सी से तोडा पत्थर को?
शौर्यवान वो मानव जिसने
सारे बंधन तोडके जिसने
सच्ची लगन और आशा लिए
कदम बढ़ाये आकाश को छूने
वीर वही जो हँसते हँसते
विष को अमृत मानकर पीले
अन्यायों और दंशों के खिलाफ
जिसने उठाई बुलंद आवाज़
जिसने तोड़ी रुढियों की बेडिया
और रच डाला नया इतिहास
प्रताड़ित और कुंठित समाज में
जिसने उठाई बुलंद आवाज़
जिसने उठाया नारा ऐसा
जोश भरा था कुछ ऐसा
उठ गयी रूहों में ज़िन्दगी
जग गयी मृतकों में बंदगी
मैं,
मैं हु चंचल, सौंदर्य चितवन से परिपूर्ण कमल,
पर हूँ अभिलाषी
करना मेरी बात पर अमल
मुझे तोड़ देना वनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढाने
जिस पथ जायें वीर अनेक
(इस कविता की अंतिम चार पंक्तियाँ श्री माखनलाल चतुर्वेदी की कविता से ली गयी हैं. यह वीर रस की कविता उनको समर्पित है)