बदलाव के इस पतझड़ मौसम में
यादों में यूं होकर गुमसुम
आँखों में भरकर नमी जो
रोक पाने में हूँ नाकाम
याद बरबस आती है
हर पल हर सांस
झुट्लाती है ये दिन ये मंज़र
न बनता खून यूं आंसू
यह दर्द शायद दुखता कम
घुट चुका है दम, रुक रही है सांसें
लाचार हूँ, नाकाम हूँ
क्यों है यह अकेलापन?
No comments:
Post a Comment