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Monday, March 29, 2010

यह दर्द शायद दुखता कम

बदलाव के इस पतझड़ मौसम में
यादों में यूं होकर गुमसुम
आँखों में भरकर नमी जो
रोक पाने में हूँ नाकाम
याद बरबस आती है
हर पल हर सांस
झुट्लाती है ये दिन ये मंज़र
न बनता खून यूं आंसू
यह दर्द शायद दुखता कम
घुट चुका है दम, रुक रही है सांसें
लाचार हूँ, नाकाम हूँ
क्यों है यह अकेलापन?

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