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Tuesday, October 12, 2010

रेफेरेंस पॉइंट


सांवली शाम धीरे से काली रात के आगोश में समाने जा रही थी| लेकिन अभी भी उसका सलोना सौंदर्य मुझे विस्मित कर रहा था| चांदनी उतनी ही हैरानी से उजली हो रही थी जैसे उसके उजले चेहरे की सुर्ख मुस्कराहट | ऐसे ही समय में मुझे उसकी याद बरबस आ जाती थी| कई बार कुछ गाने तो कभी दोस्तों से बतियाते हुए मिले "रेफेरेंस पॉइंट'...! कई बार कुछ रिश्ते ज्यादा बातूनी होते हैं| मेरा भी शायद बातूनी ही था लेकिन बातों का दौर दफतन ही शुरू नहीं हुआ था| समय लगा था, सिहरन-सी हुई थी, दर्द महसूस हुआ था, शर्म भी आई थी और ख़ामोशी से उसकी आँखों ने इकरार किया था|

खैर, उस रूमानियत की याद तब ताज़ा हो गयी जब उसी कैफ़े के आगे से गुज़रा जहाँ एक नादान जवान शाम साथ बितायी थी मीठी बातों और कॉफ़ी के गरम चस्के के साथ | समां ही कुछ ऐसा लगता था- इश्क हवाओं में है और मैं पूरे वेग से उसकी आँखों की गहराईओं में डूब रहा हूँ | ऐसी उपमा देना बहुत आसान है| अंग्रेजी में लोग इससे "so cliched" कहते हैं | लेकिन ये संस्कृति हमें बॉलीवुड ने सालों से दी है| अपने शहर से उसको मिलने के लिए ट्रेन पकड़ के आना बेवकूफी नहीं थी, उसका इंतज़ार करते हुए नीले आसमान की फलक पर सपने उकेरना, बार-बार फोन देखना की शायद एक मेसेज ही कहीं से अवतरित हो जाये और न जाने क्या क्या- भी मेरी नज़र में पागलपन नहीं था| प्यार जितना होर्मोंस का खेल है उतना ही जज़्बात से भरा है| चाहत "Procreation" के लिए होती है लेकिन पूरी दुनिया में एक वही शख्स वही आवाज़ वही गूँज वही कनखियों से इतराती आँखें वही बालों की खुशबू - वोह ही क्यूँ? कोई और क्यूँ नहीं? सोचते सोचते सामने लगे LED स्क्रीन पर नज़र पड़ी| चटकीले रंगों में कोई विज्ञापन चल रहा था| लैपटॉप का एडवरटीजमेंट था | वही साइज़ जीरो वाली हेरोइन जो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं| सोच ही रहा था की वो आ गयी- भरी भरी सी कमसिन आकृति सामने से उभरी ठीक सबवे से ऊपर आते हुए | समय जैसे शून्य हो गया| आँखों में आँसूं आ गए लेकिन नयनो का जलाशय भरा नहीं| धडकनों की आवाज़ इतनी तेज़ थी की लगा कहीं आस-पास वालो को सुनाई न दे| सब ख्वाब जैसा था- जज्बातों का उमड़ता सैलाब| कुछ लम्हों तक सिर्फ उसको देखता ही रहा - वोह मुझे देखकर धीरे से हँसती रही...आँखें नीचे की..उसकी बैचनी और डर दोनों झलक रहे थे| उसके आगे के दो दांत गिलहरी से थे ...

कालेज में पढ़ा था सआदत हसन मंटो को "किसी लड़के को लड़की से इश्क़ हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं देता"...मुझे लगा था की क्या वाहियात बात की है| आज जब वैसी ही शाम में बैठा था, उसी कैफ़े के सामने तो नज़र पड़ी वहीँ पटरी पर चमकते हुए झोलों को बेचती उसी शाम वाली औरत पर| उसका बेटा अब शायद दो साल का हो गया था वो भी पास में ही खेल रहा था| वो कुछ ही दूरी पर बैठी थी जहाँ मैं रूककर बैठ गया था| उसको देखकर याद आया की कैसे उस दिन कैफ़े से बाहर निकलते हुए मुझे उसके दूध पीते पतले दुबले बच्चे पर दया आ गयी थी- मैंने उसे रुपए देने चाहे थे| पटरीवाली ने मुझे घूरते हुए बोला था साहब भीख नहीं लूंगी कुछ खरीद लो| मेरा इशारा समझ कर वो शोख अदा में बड़ी बेबाकी से बोली मैं खरीदूंगी और मैं ही पैसे दूँगी| मुझे "MCP" कहकर चिढाती थी| दिल्ली के विख्यात फेमिनिस्ट कालेज से जो थी| आज मैं यादों में खोकर अजीब सी मुस्कान से उस पटरीवाली को देख रहा था| उसने मुझे देखा और कड़े से शब्दों में टोका- 'नए हो क्या दिल्ली में?' फिर मुझे ध्यान से देखने लगी| मुझे लगा शायद पहचान गयी| फिर बोली - झोले ले लो साहब दिल्ली के बुद्धिजीवी यही खरीदते हैं | नज़र दौड़ाई लेकिन जैसा रंगीन झोला उसने खरीदा था वो मिला ही नहीं| मिलता तो ले लेता| शायद वैसा एक ही बना था|

फिर कैफ़े का दरवाज़ा खुलने से अन्दर से AC की हवा बाहर आई| ध्यान उसी जगह पर चला गया जहाँ मैं उसके साथ बैठा था| आज वहां दो विदेशी आदमी बैठे थे| उनके हाथों में गाइड बुक थी दिल्ली की| उस शाम उसकी उँगलियाँ मेरी उँगलियों को छू रही थी| मैं उसे बता रहा था की कैसे मेरे शहर में एक ही मॉल है और कैसे वहां सडको पर बिना हेलमेट के लोग पूरी रफ़्तार में बाइक चलाते हैं| उसने पूछा की तुम भी चलाते हो बिना हेलमेट के तेज़ रफ़्तार में? मैंने कहा नहीं मेरी बाइक में डिस्क ब्रेक हैं | फिर वो हँसी और बोली जब तुम बोलते हो तो तुम्हारे नीचे वाले होठ हिलते है ऊपर वाले सिर्फ स्थिर रहते है| मैंने सोचा मेरी बुल्लेट (मेरी बाइक जो उसे ज़रा भी पसंद नहीं थी) से बात हठकर मेरे होठों पर कैसे आ गयी? यह उसकी एक और रवानगी थी- वो इतने रंगों से भरी हुई थी- इतनी इन्द्रधनुषी बातें सिर्फ वही कर पाती थी| मैं बस उसको चपलता को पसंद- बहुत पसंद करता था| उसने कहा यही खूबी जिसमे बात करते समय सिर्फ नीचे के होंठ हिलें, राजसी शान की निशानी है, इंग्लैंड में राजा और उनके वंशज ऐसे ही बोलते है| बिलकुल तुम्हारी तरह! आज भी कई बार आईने में देखता हूँ की क्या मैं भी वंशज लगता हूँ कहीं से?

शाम विलीन हो रही थी रात में - थोड़ी ठंडक थी- लेकिन यादों की गर्मी जला रही थी अन्दर- पता नहीं सुकून दे रही थी की क्षीण कर रही थी| पीछे मुड़कर फिर उसी टेबल पर नज़र रुकी| अब वहां एक लड़का और लड़की बैठे थे | लड़की कुछ बोल रही थी फिर सिर हिला रही थी| लड़के के चेहरे पर नए प्यार का खुमार चिपका था| मैंने उसके इश्क को ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं दी| लडकी को दोबारा देखा- उसके आगे के दांत गिलहरी से थे...

10 comments:

  1. bahut khub ant tak bandhe rakha badhai

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  2. हम्म..........................................।

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  3. Bahut sundar aur sajeev hai, aisa laga jaise Connaught place ke sadak ya restaurent me baith ke padh raha hoon ya dekh raha hoon..

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  4. (प्यार जितना होर्मोंस का खेल है उतना ही जज़्बात से भरा है| चाहत "Procreation" के लिए होती है लेकिन पूरी दुनिया में एक वही शख्स वही आवाज़ वही गूँज वही कनखियों से इतराती आँखें वही बालों की खुशबू - वोह ही क्यूँ? कोई और क्यूँ नहीं?)......और क्या कहू इस बारे में.....सुना तो कई बार था पर कभी सोचा नहीं था इस तरीके से. ....
    मंटो ने और भी बहुत कुछ कहा हैं प्यार के लिए शायद वो सब कुछ भी जानना जरुरी हैं
    बात करी याद जो बीते हुए दिनों की
    आना पड़ा मुझको तेरे बिछड़े हुए शहर में......
    काबिले तारीफ हैं ये .....ऐसे ही खुबसूरत सा लिखते रहो. हार्दिक शुभकामना

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  5. गज़ब लिखा है ...यूं ही लिखते रहिये

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  6. दिल ही थो है न संग-ओ-खिश्त, दर्द से भर न आये क्यों?
    रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यों?
    - मिर्ज़ा ग़ालिब

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  7. बहुत ही सुन्दर आकांक्षा जी !! आपका लेख देखकर तो लगता नही आप ८०-९० के दशक की हैं या उन पलों को जीया है ! खैर काफी सुन्दर ढंग से जज्बातों को प्रस्तुत किया है ! तारीफ के काबिल यह लेख ! ऐसे ही लिखते रहिये ! धन्यवाद यह लेख साझा करने के लिए !
    suyash deep rai

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  8. बहुत ही सुन्दर आकांक्षा जी !! आपका लेख देखकर तो लगता नही आप ८०-९० के दशक की हैं या उन पलों को जीया है ! खैर काफी सुन्दर ढंग से जज्बातों को प्रस्तुत किया है ! तारीफ के काबिल यह लेख ! ऐसे ही लिखते रहिये ! धन्यवाद यह लेख साझा करने के लिए !

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  9. कहानी कहने की अदा निराली है। अच्छी लगी। शुभकामनाएँ।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    www.vyangya.blog.co.in
    http://vyangyalok.blogspot.com

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  10. "...जहाँ एक नादान जवान शाम साथ बितायी थी..."
    कहानी बहुत ही रोचक और सधी हुई है. शब्दशिल्प का बेहतरीन इस्तेमाल किया है.

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