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Wednesday, November 17, 2010

हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

गर्माहट भरी मुस्कराती धूप में शर्माती लाल वो जाड़े की हर सुबह
आगोश में सिमटकर कानो में हलके से हंसाती वो कहानियां
जब साथ आँखें मूंदकर देखे सपनो से काफूर हो जाती ठिठुरन
और हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

हर रोज़ नयी तस्वीर बनाती हूँ आँखों की ओस से रंग चुराकर
रंगसाज़ से सजाती अल्हड बनाती मुझे आपकी झोली भर अशर्फियाँ
लफ्ज़ नहीं कर सकते इन्साफ बयां इस ख़ामोशी के इकरार का
क्योंकि हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

अपरिपक्व समझ दामन से बांधे दुनियापरस्ती से दूर तलक
मखमली एहसास से हथेली छुड़ाती उँगलियों की नटखट रवानियाँ
साथ गाये गीतों में ढूँढती हमारी मदमस्त परछाईयों की झलक
यूँ ही हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

होठों की कश्ती किनारों से दूर बहाती अरमानो की लहर
इठलाती है फलक पर डूबते सूरज की पलकों पर बिछी नादानियाँ
दिल में धडकने छुपाये कशमकश भरी संवेदनाओ को भेद रहे नज़रो के कहर
अब तो हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

इतने रूपों में विभोर करती पंख देकर उडान लेती ये मस्तानियाँ
आज फिर गुस्ताखी में एक याद बन गयी आपकी बदमाशियां

8 comments:

  1. प्रेम भावनाओ से भरपूर, मन की कोतुहलता का अनमोल चित्रण तुमने अपने शब्दों के द्वारा उम्दा तरीके से किया है. कभी प्रेम मे प्रकृति का सजीव उपमा देते हुए, तो कभी कृत्रिम सुन्दर्ताओ को सजीव दर्शाते हुए और तो कभी उपमा से परे आँखे, हथेली, धड़कन इत्यादि जैसे शब्दों का प्रत्यक्ष प्रयोग कर तुमने मानो अपने भावनाओं को जीवित शब्दों मे प्रस्तुत कर दिया हो...

    हम तो कायल हो गए आपके लेखनी के... आपसे क्लास लेनी होगी हमें अब तो....

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  2. मजा आ गया सुबह सुबह आपकी पोस्ट पढ कर

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  3. प्रेम रस मे ओत प्रोत रचना बहुत अच्छी लगी। धन्यवाद।

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  4. "मत पूछ के क्या हाल है मेरा तेरे पीछे ?
    तू देख के क्या रंग तेरा मेरे आगे ..."
    - मिर्ज़ा ग़ालिब

    बेमिसाल सक्सेना, बहुत बेमिसाल!

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  5. jis nipunta se aapne apney mann k bhawon ko ismey apney sateek shabdo ka istemal kartey hue piroya h weh taarrif k kaabil h.

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  6. कुछ छितरे छितरे जीवन की ये उक्तियाँ जैसे तुम्हारी ही संज्ञा, क्या अद्भुत अंदाजे- बयां फ़रमाया है आकांक्षा तुमने. वैसे तो आँखों से बड़ा दरिया इस दुनिया में नहीं मगर तुम्हारी मूंदी हुई आँखों के सपनो की ठिठुरन गयी रात की भांति जैसे जिंदगी को सोना और जागने जितना ही बना गया.
    उँगलियों की नटखट रवानियाँ घूम फिर कर लौट ही आती है चाहे कितना ही भागना चाहे वे मखमली एहसास से दूर. कैसे सत्य पिरोती है ये बदमाशियां और कैसे नियति सिखाती है गुस्ताखियों के विधान में ऐसी कविता रचना. तुम सच में हो तुम्हारे तुम की संज्ञा...आमीन!!

    --
    http://gorakhh.blogspot.com

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  7. "रोज तुम्हारी तस्वीर बनती आँखों की ओस से रंग चुरा कर "वाह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति |बधाई
    आशा

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  8. Lovely...aKansha! Didn't know about the poetic side of a journalist!

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