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Sunday, March 20, 2011

यह लिबास पुराना सा


सुगंध भरी साँसों की गर्मजोशी में
बयां हो रही रवानगी नए ख्वाब की
प्रत्युत्तर में खामोश कल्पनाओ के
मध्य में सारा आकाश बिछा है

कभी पलाशों के गुलिस्तान में
निर्झर सा बहता है मन मेरा
नज़रों की सुरंग के पीछे
सदियों में बीता आलोक छिपा है

धूप लगी है रूह के आँगन में
लालिमा से राग सुलगा लेना
उलझी सीढियों पर पाँव पसारे
इस शून्य में ब्रह्माण्ड रुका है

कैसी कोठरी के भीतर ढूँढा
यह लिबास पुराना सा
चार पहर के अंत हुए हैं
समझौते में सम्मान टिका है

4 comments:

  1. the brilliance and intermingling of two souls can never be complete without acceptance... i am ur biggest fan... ur writing pervades time, barrier and reality... keep writing, keep surprising... a very brilliant piece of poem!

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  2. मै तुम्हारी काव्यात्मकता शैली का पहले से ही प्रशंशक रहा हूँ पर तुम्हारी इस रचना ने तुम्हारी काव्यात्मकता शैली को एक नई पहचान दी है| कई भावनात्मक अर्थो से परिपूर्ण सृजनात्मक शैली मे विवाहित स्त्री कभी पहली रात की दुल्हन तो कभी योवन के दहलीज मे युवती मन का सजीव चित्रण मुझे बार बार इस सृजनात्मक शैली पर मुस्कुराने को मजबूर करता है| मुझे कभी इसमें प्रेम लीला तो कभी समझौते मे प्रेम की अंतिम आत्मसंतुष्टि की अनुभूति का आभास हुआ| बहुत खूब लिखी हो आकांक्षा... हमेशा लिखते रहो....

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  3. well... this one went above the head... like an asteroid. sorry

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