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Monday, June 14, 2010

गंतव्य


एक कौंध सी गिरी वो
मिथ्या के कम्पन में आहट हुई
मन में उठती चुप्पी धीरे-से खुली
अथाह अमर श्रोता-सी भौचक्क मानसी

असीमित आस्था का सागर-मंथन हुआ
आवाज़ का पराग फूल-सी रूह को चख गया
सृजन हुआ, निर्भय मन हुआ

कुछ संकोच में, कुछ कल्पना में
गीत-सी मदमस्त वह निरंतर बढती रही
अब ठिठकन न थी, पड़ाव-दर-पड़ाव
अनाम सम्प्रेषण और आलौकिक शब्द-जाल

दरख्तों से निकलती रौशनी जलाने लगी
गति-शब्द-चाल में वो रूपक सी व्यक्त हुई
अर्थ-निरर्थ, उन्मुक्त-बाध्य
रंगमंच अनावृत करता उसका गंतव्य

4 comments:

  1. dear mast likhi hai...laajwaab hindi & theame hai

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  2. क्या लिखा है!1अति सुंदर!

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  3. hame to laga tha ki MCRC me sirf english janane wale hi aa pate hain, lekin ye rachna padh kar laga ki hindi abhi bhi man me uthati chuppi ko khol sakti hai.aise hi likhti raho.

    dher sari subhkaamanaayein!!!

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  4. यह कविता की चुप्पी में मौन का बवंडर और ठिठके से शब्दों को किसी राग का स्पर्श किसका आशीर्वाद है आकांक्षा? यह किसी निर्झर पहाड़ी पर फूटा जीवन राग भी लगता है जहाँ तुम आवाज़ की रूह के बरक्स अभी अभी खिल आये वासंतिक परागों का अर्ध्य स्वीकार करने की कामना में अपने आप को असम्प्रेश्नीय अनर्थो के हवाले कर देती हो. इस गंतव्य का रंगमंच अभी अभी सजा हो जैसे, तुम्हारी कविता से अकविता का पार्श्व.

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