Pages

Tuesday, May 10, 2011

बहरूपिया

1. मैले पैरो में दर दर की मिट्टी लिए,
   घूम रही है कसबे- कूंचे 
   कभी है निर्मल तालाब सी ठंडी आँखे 
   तो कभी है कुआँ भर आँखों की गहरायी
   समझने का अर्थ ही नहीं 
   यह अर्थ-निरर्थ की बात ही नहीं
   बेपरवाह सी सीरत को 
   सूरत के गुमान से बेखबर उठाये
   चल देती किसी भी टोली में
   क्यूंकि क्या होगा अगर गूढ़ खुला तो
   उसका तो समस्त ब्रह्माण्ड है 
   उसके रहस्यमयी अवतारों में

2. सामने आकर देख जाते हो भीतर तक मुझे 
   या खुदको या छुपा लेते हो सब कुछ दुनिया से
    देखा है, जाना है, भली तरह से 
    तुम्हारी सारी कमजोरियां
    तुमने ही अनजाने में दिखायीं थी 
    अपनी खोट 
    तुम्हारी कटुता भी सही है, नीरसता भी 
    और चुपके से भांपा है तुम्हे टिकटिकी लगाये
    अपार संसार में समां कर देखो कितनी  
    व्यर्थ दिखती है पहचान तुम्हारी 
    एक बार खुदको रोशन कर, 
    मिटा कर तो देखो 
    एक बार मुझमे समा कर तो देखो 

3. निर्भीक मुस्कान गुलाबी सुराही
    से अदरों पर
    बचपन की नादानी से छूट,
    खो जाओ इस यथार्थ में
    दुस्वप्न से बाहर?
    आसपास रहेंगे मासूमी के उजाले
    अकेलापन सताएगा जैसे
    टूटा दांत
    फिर भी खुड्डी की तरह
    मुस्कुरा देना जी भरके
    क्षणभर में पार कर लेना
    वो कई साल
 
4. रंगे  हुए  चेहरे  पर
   जमी  धुंध अरसे की
   जो  पाया , कैसे संभाला
   जो खोया  उसका  बकाया ?
   चरम पर दिखता 
   क्षितिज अभी भी दूर है
   इतने फलकों में
   मेरा मनसा कौन है?