Pages

Sunday, November 6, 2011

अनाम


सत्य है या मिथ्या 
है भ्रम जाल सा बुना
शोर है या धुँआ
है परछाई सा अधूरा 
वेग है या ठहराव
है भाव सा अनिश्चित
व्यापक है या सीमित 
या है अर्नव सा गहरा 
रिक्त है या इन्द्रधनुषी 
या है प्यार सा धुंधला

Monday, August 15, 2011

अथाह मंदाकिनी में उमड़ते इस वितस्ता के वेग
की सही-गलत लहरों से परे भी इन
गहराईयों के धरातल पर कुछ
अपाकर्षी कंकाल गढ़े हैं...

...यथार्थ में एक कल्पनातीत तेज
से जलकर मरू होने का
बस एक अंतिम प्रयास बचा है
 

Tuesday, May 10, 2011

बहरूपिया

1. मैले पैरो में दर दर की मिट्टी लिए,
   घूम रही है कसबे- कूंचे 
   कभी है निर्मल तालाब सी ठंडी आँखे 
   तो कभी है कुआँ भर आँखों की गहरायी
   समझने का अर्थ ही नहीं 
   यह अर्थ-निरर्थ की बात ही नहीं
   बेपरवाह सी सीरत को 
   सूरत के गुमान से बेखबर उठाये
   चल देती किसी भी टोली में
   क्यूंकि क्या होगा अगर गूढ़ खुला तो
   उसका तो समस्त ब्रह्माण्ड है 
   उसके रहस्यमयी अवतारों में

2. सामने आकर देख जाते हो भीतर तक मुझे 
   या खुदको या छुपा लेते हो सब कुछ दुनिया से
    देखा है, जाना है, भली तरह से 
    तुम्हारी सारी कमजोरियां
    तुमने ही अनजाने में दिखायीं थी 
    अपनी खोट 
    तुम्हारी कटुता भी सही है, नीरसता भी 
    और चुपके से भांपा है तुम्हे टिकटिकी लगाये
    अपार संसार में समां कर देखो कितनी  
    व्यर्थ दिखती है पहचान तुम्हारी 
    एक बार खुदको रोशन कर, 
    मिटा कर तो देखो 
    एक बार मुझमे समा कर तो देखो 

3. निर्भीक मुस्कान गुलाबी सुराही
    से अदरों पर
    बचपन की नादानी से छूट,
    खो जाओ इस यथार्थ में
    दुस्वप्न से बाहर?
    आसपास रहेंगे मासूमी के उजाले
    अकेलापन सताएगा जैसे
    टूटा दांत
    फिर भी खुड्डी की तरह
    मुस्कुरा देना जी भरके
    क्षणभर में पार कर लेना
    वो कई साल
 
4. रंगे  हुए  चेहरे  पर
   जमी  धुंध अरसे की
   जो  पाया , कैसे संभाला
   जो खोया  उसका  बकाया ?
   चरम पर दिखता 
   क्षितिज अभी भी दूर है
   इतने फलकों में
   मेरा मनसा कौन है?
 

Tuesday, April 12, 2011

आन्दोलनकारी कीड़ा

Photo: Joydeep Hazarika













हर जगह इतना शोर- शराबा | अभी तो इंडिया क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता है|  रात भर बाईक पर बैठे नौजवानों की हाय-फाये तो दिन में भी पटाखों की धूम  | अभी इसी फील गुड में हंसी हंसी में रेवोल्युशन भी हो गया | और हुआ तो कैसे हुआ !!! शुरू में हर जगह अन्ना प्रेम और अब हर जगह भर्त्सना| हमारे अधपके जनतंत्र (जिसका डंका हम पूरे विश्व में बजाते है)  को एक नया सुपर -हीरो मिलते मिलते रह गया! सरकार के चेक्क्स और बेलेंसेस के महा घोटालो पर किसी ने अनशन करने की ठानी तो वो जनता के मसीहा और गरीब बेसहारों के सर्वे सर्वा हो गया|  अब इसमें गलत भी क्या है ? यह लडाई जब सैधांतिक मूल्यों पर थी तो किसी के "पाक- साफ़" नाम की अगुवाई में करोडो का दर्द उठाने में डर कैसा?  मौकापरस्ती की दूकाने तो लगेंगी ही, मामला व्यापक हो गया है ...इलेक्टोरेट तक पहुँच गया है...वोटरों का सवाल है | जन समूह थोडा समझदार जान पड़ता है इसलिए हवा का रुख पहचान कर सारे पतंगे वहीँ उड़ लिए हैं| "पाक- साफ़" छवि का विच्छेदन अंत में करेंगे क्यूंकि मामला सिर्फ़ छवियों तक सीमित नहीं है-  सफेदपोशी और काले दानवों के बीच के कई धुंधले मायने भी सामने आने चाहिए -

1 अनशन ब्लैकमेलिंग है - अलोकतांत्रिक है , असंवैधानिक (रिक्त स्थान भर लीजिये जो उचित शब्द लगे )
देखिये चरित्र की बात कौन कर रहा है? दुशासन-रुपी सरकार? ब्लेकमैलिंग की परिभाषा सरकार दे रही है - इस दलील पर जानते हैं हरिशंकर परसाई सरकार पर व्यंग्य के कितने बाण छोड़ते? सरकार सीना ठोक कर कालाबाजारी, घूसखोरी और हाई -लेवल घोटाले करती है- हम सबके सामने! अगर किसी आम आदमी को क्रांतिकारी कीड़ा काट ले तो वो अकेला मानव-मात्र सरकारी तंत्र का क्या बिगाड़ लेगा| ज़हर ज्यादा चुभा हो तो हथियार भी उठा सकता है- माओवादी लाल पट्टी सर पे बांध सकता है - लेकिन ऐसा नहीं किया| मूल्यों के रास्ते, लोगों को साथ लेकर, शिष्टता की सड़क पर चलकर सरकार की नींद उड़ाई-असंवैधानिक क्या है ? वो सरकार जो जवाबदेही की जगह "conspiracy of silence " की चादर ओढ़कर किसी तीसरी शक्ति पर सारा आरोप मढने में महारत हासिल कर चुकी है- उससे अगर सड़क पर बैठकर, शुद्धिकरण का हाथ पकड़ सामने से जवाब माँगा जाये- तो क्या हर्ज़ है?

2 . जनलोकपाल विधेयक की मांग से क्या होगा? अगले ही दिन भ्रष्टाचार काफूर हो जायेगा?
क्या जन्म लेने के अगले दिन ही आप इतने विद्वान हो गए थे की आपको लगता है की यह संपूर्ण समाधान है? IPC की धारा 302 से हत्याएं तो नहीं रुकी या 376 से बलात्कारी पैदा होने से नहीं रुके| यह एक्ट - भ्रष्टाचार निवारक नहीं लेकिन दंडात्मक ज़रूर है (punitive not preventive )| अगर किसी मुद्दे को लेकर संगठित न हो तो लक्ष्य के अभाव में दरारें उभरने लगती है|
अन्ना का आंदोलन संदेहास्पद क्यों है? क्योंकि समर्थक संदेहास्पद हैं? या संदेह इस बात का है की इसका फायदा किसको पहुंचेगा? इस जन-कल्याण के पीछे ज़रूर कुछ है! लेकिन क्या? संदेह है की भ्रष्टाचार ही क्यूँ चुना- इतने गंभीर मुद्दे है - बाकि (???) मुद्दे पहले क्यूँ नहीं सुलझाये? इस भ्रष्टाचार को तो टीवी रेटिंग भी नसीब नहीं होती - ललित मोदी को बुलाना चाहिए था ग्लैमर डालने के लिए! तभी विश्वसनीयता बनती- अभी तो संदेह है ? लेकिन संदेह किसका है ? मेरा आपका या कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों का ?

3 . अगर पूंजीपति इन मांगो को सही कहें- तो दाल में कुछ काला है, अगर मीडिया गुणगान करे (इस पर फिर से बात करेंगे) तो सब अजेंडा सेट्टिंग है, ज़रूर इस संघर्ष के पीछे commercial value छिपी है | सब प्रायोजित है | जो प्रायोजित है वो गलत है| अगर किसी तरीके से कोई भ्रष्टाचार विरोधी बातें पोपुलर करा रहा है,या उसी एक ट्रेंड , तमगा या ब्रांड बना रहा है - तो यह सरासर उपभोक्तावाद है | गारंटी तो कोई ले की जनलोकपाल विधेयक कीटनाशक है और सत्ताधारी बचाव मास्क ढून्ढ रहे हैं  | लेकिन गारंटी तो व्यक्तिगत लेनी होगी | अब सामने कौन आये? चलो एक गांधीवादी को आगे करते है और पीछे से फायर हम करेंगे|  फ़ॉर्मूला हिट तो सब फिट  | आम आदमी का मुद्दा बन जाये खास - यह तो भ्रामक द्विभाजन है|

4 . यह सिविल सोसाइटी की जादुई छड़ी इंडिया को सोने की चिड़िया बनाएगी?
जितने मुंह उतनी बातें | मीडिया वाले समझदार हैं या बेवकूफ वो खुद भी नहीं जानते | सुबह जंतर - मंतर को तहरीर स्क्वेर बनाते है और अन्ना को महात्मा कहकर शाम तक U -TURN लेकर आन्दोलन को  फेसबूकिया करार और अन्ना को कैमरा हंगरी कहते है| कैमरा दिखाया ही क्यूँ था पहले? आजकल बात आ गयी है मिडल क्लास वालों पर| अब यह मिडल क्लास प्रजाति का कोई प्रवक्ता तो है नहीं , मीडिया उनके साथ विरले ही सैर सपाटे पर जाती है, तो क्या उनका आन्दोलनकारी होना अछूत है? अब उनकी तरफ से सफाई कौन दे| मीडिया तो सिर्फ यह दिखने में मशगूल है की वही लोग आन्दोलन में बैठे हैं जिनका पैसे देकर भी काम नहीं हुआ| लेकिन यह तो सोचा ही नहीं की घर से निकल अप्रैल की गर्मी को बर्दाश्त कर में ये माध्यम वर्ग बैठकर अपने लिए कौनसी रोटियां सेक रहा होगा? सड़क पर तो तभी बैठते हैं जब जागरण होता है, मिन्नत मांगनी होती है अभी यह हक माँगना मिन्नत से कम  है क्या? कुछ तो कारण रहा होगा की यह नौबत आ गयी | गरीब मूलभूत अधिकारों वाले भारत निर्माण के चमत्कारों की प्रतीक्षा (जैसे फ़ूड सिक्यूरिटी) कर रहा है और अमीर वर्ग जमा किये पैसे को उड़ाने का तरीका ढून्ढ रहा हैं| बीच की मिडल क्लास ही असली  भ्रस्टाचार की दुर्घटना का सच्चा भुक्तभोगी है| वो नहीं आयेंगे तो कौन आयेगा? अब सूचना क्रान्ति के सूर्योदय में फेसबूक / ट्विट्टर उनको आम से खास बना रहा है तो एलीट मीडिया को इससे क्या हर्ज़ ? क्रान्ति के माध्यम तो अब यही होंगे , यह हाल ही मैं विश्व्यापी संघर्ष के उदाहरणों से साफ है| इसमें किसी प्रकार की शरर्मिंदगी कैसी ? जब इन्टरनेट पर  इतना जनाधार है तो समय आने पर क्या यह सड़कों पर भी उतरेगा | कौन रोक पायेगा इन्हें ?
5 . जाते- जाते
अन्ना  या आन्दोलनकारी किसी बात पर गलत है तो ये आन्दोलन भी गलत है | अगर वहां भारत माता के चिन्ह है तो ज़रूर यह संघ का कियाधरा है| अन्ना समर्थक आरक्षण विरोधी हैं| आरक्षण विरोधी दलित विरोधी हैं आरक्षण समर्थक दलित समर्थक वरना नहीं| सरल निष्कर्ष हैं| अन्ना को नरेन्द्र मोदी पसंद  हैं| एक और वाल  - जवाब कहाँ  है? इरोम शर्मीला की याद किसीको नहीं आई?  इस बिल से उन्ही जातियों को फायदा होगा जिन जातियों के सदस्य ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य है| अब इस कमेटी में भी वंशवाद  है | रामदेव  के योग शिविर अभी Halt पर हैं- यह वंशवाद गंभीर  मुद्दा है , योग -गुरु  का हस्तक्षेप ज़रूरी है | भीड़ के साहस और मनोबल के साथ   दुर्भाग्यवश  घटना हो  रही  है | समाधन जल्दी निकालना होगा इस पहले की लोग उब जायें और अन्दर लगी आग बुझ जाये|

यहाँ सिर्फ एक छवि नहीं एक साथ एक बुलंद आवाज़ चाहिए| हम सबकी |

Sunday, March 20, 2011

रवीश जी के साथ गुफ्तुगू


यह लिबास पुराना सा


सुगंध भरी साँसों की गर्मजोशी में
बयां हो रही रवानगी नए ख्वाब की
प्रत्युत्तर में खामोश कल्पनाओ के
मध्य में सारा आकाश बिछा है

कभी पलाशों के गुलिस्तान में
निर्झर सा बहता है मन मेरा
नज़रों की सुरंग के पीछे
सदियों में बीता आलोक छिपा है

धूप लगी है रूह के आँगन में
लालिमा से राग सुलगा लेना
उलझी सीढियों पर पाँव पसारे
इस शून्य में ब्रह्माण्ड रुका है

कैसी कोठरी के भीतर ढूँढा
यह लिबास पुराना सा
चार पहर के अंत हुए हैं
समझौते में सम्मान टिका है

कभी ठहराव कभी खींचतान है

कभी ठहराव कभी खींचतान है
कभी दास्ताँ तो कभी विराम है
कभी रुकी सी हवा कभी पुरवाई का अभिमान है
कभी अतीत का निशान कभी सोच की उड़ान है
कभी राहेगुज़र में तू हमसफ़र है तो
कभी यह कारवां अकेला अपना जहान है
कभी ठहराव कभी खींचतान है




Sunday, January 30, 2011

यह रेसिलिएंस क्या होता है?

काफी अरसा हो गया है फेसबुकिया हुए | अब तो जैसे फसबुक ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गयी हो | नोटीफिकेशंस आते हैं: कोई फलां गाना गा रहा है, कोई ऑफिस में मक्खी मार रहा है, कोई बॉस पर भड़ास निकाल रहा है, किसी की प्रेमिका शादी को राज़ी नहीं हो रही, कोई बारिश में पकौड़ो का स्वाद चख रहा है तो कोई पार्टी में पहनी नयी ड्रेस की फोटो प्रोफाइल पर लगा रहा है| दुनिया नयी धुरी पर घूम रही है| हर कोई आप पर नज़र रखे है| आप भी उस gaze या नज़र के हिमाकती हैं, सबको अपने भीतरी संसार के दर्शन कराते है, बस एक क्लिक के साथ | खैर, काफी कुछ जान पड़ता है आपके बारे में फसबूक से| आपका दर्शन, सोच , समझ , विचार या विचारहीनता |

आजकल बड़े जटिल दिनों से हमारा देश गुज़र रहा है| भ्रष्टाचार के नए-नए अध्यायों से रोज़ अवगत हो रहे है| देश हमेशा की तरह भगवान भरोसे ही चल रहा है लेकिन फेसबुक पर इस दुर्भाग्यपपूर्ण स्थिति को 'like ' करने वालों की कमी नहीं है| हज़ार करोड़ों का कॉमनवेल्थ खेल घोटाला हमारे सामने होता है और हम मूक दर्शक बने एक टॉयलेट पेपर रोल को 12000 रुपये में बिकते सहन कर लेते है, ऐसे ही 2G घोटाला होता है और हम टाटा डोकोमो की नयी धुन को youtube पर like करते हैं क्योंकि 2G से हमें क्या? किसी और की जवाबदेही है| जवाबदेही तो तब बनेगी जब प्रश्न उठाया गया हो!

आदर्श इमारते बनायीं जा रही है और हम ठगे से खड़े हैं| मुख्यमंत्री ज़मीन घोटालों में लिप्त हैं लेकिन हम अपने घर के नीचे अपनी ज़मीन दबाये आराम से सो रहे है| महंगाई डायन कमर तोड़ रही है लेकिन बस सहे जा रहे हैं - जैसे पानी में डुबकी लगाये पीठ पर गीली रूई का बोझ कोई गधा उठा रहा हो| अपनी दुर्दशा का कारण हम outsource करने की कोशिश करते रहते है| कभी झगडालू बनके DTC बस में गाली गलोच कर दी तो कभी टीवी प्रोग्राम में SMS कर भ्रष्टाचार पर कमेन्ट भेज दी| सबसे प्रिय और आसान रास्ता है फसबूक पर रेसिलिएंस दर्शाने का | यह रेसिलिएंस क्या होता है? सहनशीलता? वह ताकत जो हमें चुप रहने पर मजबूर करती है? हमारा मध्यमवर्ग इस रेसिलिएंस के लिए ही तो दुनिया भर में मशहूर है| कुछ भी आज़मालो मगर टस से मस नहीं होता| सहता जाता है सहता जाता है| सहनशीलता सीमा लांघती जाती है, और मुंह बंद किये यह बेशर्म समाज अपनी मेहनत से कमाए पैसे पर होते कुकर्म अपनी आँखों के सामने देखते हैं|

सबसे ज्यादा दुःख होता है युवाओं की लाचारी पर! लाचारी कहूं या आलसीपन या खुद्दारी की कमी| काला धन स्विस बैंको में जमा है लेकिन जागरूक होने का सबूत हम यहाँ सिर्फ फसबूक status लिखकर करते हैं| असल में कुछ करते नहीं है| सारी ज़िम्मेदारी से मुक्त| बाकी सब चीजों के लिए इंतज़ार नहीं होता लेकिन देश के लिए कुछ करने का हौसला और समय अभी दूर है| सारा समय तो friends बनाने में निकल जाता है| मैं नहीं मानती की यह सहनशीलता है, यह सिर्फ और सिर्फ आलसीपन है| या बुजदिली| इस रेसिलिएंस का घड़ा कब भरेगा यह पता नहीं|

निराशावादी नहीं होना चाहती इसलिए इस लेख का अंत फेसबुक पर ही एक दोस्त की दी हुई चेतावनी के साथ कर रही हूँ:



"अगर आप यह पढ़ रहे हैं तो यह एक चेतावनी है आपके लिए| जो कुछ भी बकवास इस चेतावनी में पढेंगे वो आपकी ज़िन्दगी के कुछ और पलों को फिजुलखर्च कर देगी | कोई और बेहतर काम नहीं है आपके पास इसको पढने के अलावा? या आपकी ज़िन्दगी इतनी खली है की कोई बेहतर तरीका नहीं है जीवन यापन का? किसी सत्ताधारी के प्रभुत्व से इतना प्रभावित क्यूँ रहते हैं की उसको आदर और विश्वसनीयता प्रदान करते हैं? क्या वो सब पढ़ते हैं जो आपको पढना चाहिए? वोह सोचते है जो दूसरे आप पर थोपते हैं? वह खरीदते है जिसकी दूसरे आवश्यकता व्यक्त करते है? अपने घर से बहार निकालो! बेफिजूल की चीज़ें खरीद के घर मत भरो! टीवी बंद करो| एक लड़ाई शुरू करो! साबित करो की तुम जिंदा हो! सक्रिय हो! अपनी बची कुची मानवता की मांग करो, किसी सरकारी फाइल में आंकड़े बनने से पहले| मुक्त हो जाओ| चेतावनी दी गयी है|"

Wednesday, January 12, 2011

अबूझ काल्पनिक परोक्ष दर्पण के भीतर झांकना चाहा है
अपने प्रतिबिम्ब में किसी अनजान को घूरते पाया है
शीशे की मनमानी है या मन के अंधेरो की छाया
इतने चेहरों को पारदर्शी कर न जाने कितने राजों को पीछे छुपाया है...