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Wednesday, March 28, 2012

रेखाएं
सीमान्त की धुरी पर
सीधी समझ से परे झुककर
उलझ कर बन जायें
वक्र

कैद

मन के रूपक
में व्यक्त होती विषयी
सूक्ष्म लौ में जलती
उन्मुक्त

एकतरफा
ओस से भीगा
नैसर्गिक उन्माद के आवेश में
पेड़ पर आये पत्तों सा
स्वाभाविक

विश्वास
संवेदना के अक्ष पर
झूलता डगमगाता विधि के
दोराहों पर चुनता
आघात

Friday, March 23, 2012

आज कुछ  समां ऐसा  है कि अपनी 
गुस्ताखियों पर गर्दन झुक रही  है
और  जनाब की  रूमानियत  ने 
शर्मसार कर दिया है
ऐसा भी  क्या मर्ज़ और पागलपन  है 
कि  कुछ  लफ़्ज़ों में  बताना  नामुमकिन  है 
कि  दर्द  से  आँखों  के  कोनों  में  ओस  ने 
पैर  पसार  लिए  है
मेरी  सुबह  की  उम्मीद  करने  से  क्या
इतेफाक रखता है  
रात  की  स्याही  बिखेरने वाला

Tuesday, February 28, 2012

तस्वीर

आँखें अब ऐसे भेद खोलेंगी की उनमे ख़ुशी छलकने लगेगी
मुस्कुराता सैलाब होठों के किनारे क्षितिज के पार ले जायेगा
बस अब आवाज़ सुनाई ऐसे देगी कि कविता लिखी हो मेरे मन ने
फिर नाक के ऊपर ऐनक संभाल कर जीवन साझा करोगे तुम
हाथ बढाकर अगर छूना चाहूंगी तुम्हारी हथेली का स्पर्श
तो कमबख्त ये समय के परदे से ढकी तुम्हारी तस्वीर
रोक देगी अधर में लटकी ज़िन्दगी हमारी-तुम्हारी

Friday, February 24, 2012

तुम
जो नासमझ हो
निहायत ही पगले
अगर जाओगे मरने भी
मौत की बिछी चादर के ऊपर टहलते
तो ले आउंगी तुम्हे कान पकड़ कर
जीवन के धरातल पर
साथ में सिगरेट
सुलगाने

Sunday, November 6, 2011

अनाम


सत्य है या मिथ्या 
है भ्रम जाल सा बुना
शोर है या धुँआ
है परछाई सा अधूरा 
वेग है या ठहराव
है भाव सा अनिश्चित
व्यापक है या सीमित 
या है अर्नव सा गहरा 
रिक्त है या इन्द्रधनुषी 
या है प्यार सा धुंधला

Monday, August 15, 2011

अथाह मंदाकिनी में उमड़ते इस वितस्ता के वेग
की सही-गलत लहरों से परे भी इन
गहराईयों के धरातल पर कुछ
अपाकर्षी कंकाल गढ़े हैं...

...यथार्थ में एक कल्पनातीत तेज
से जलकर मरू होने का
बस एक अंतिम प्रयास बचा है
 

Tuesday, May 10, 2011

बहरूपिया

1. मैले पैरो में दर दर की मिट्टी लिए,
   घूम रही है कसबे- कूंचे 
   कभी है निर्मल तालाब सी ठंडी आँखे 
   तो कभी है कुआँ भर आँखों की गहरायी
   समझने का अर्थ ही नहीं 
   यह अर्थ-निरर्थ की बात ही नहीं
   बेपरवाह सी सीरत को 
   सूरत के गुमान से बेखबर उठाये
   चल देती किसी भी टोली में
   क्यूंकि क्या होगा अगर गूढ़ खुला तो
   उसका तो समस्त ब्रह्माण्ड है 
   उसके रहस्यमयी अवतारों में

2. सामने आकर देख जाते हो भीतर तक मुझे 
   या खुदको या छुपा लेते हो सब कुछ दुनिया से
    देखा है, जाना है, भली तरह से 
    तुम्हारी सारी कमजोरियां
    तुमने ही अनजाने में दिखायीं थी 
    अपनी खोट 
    तुम्हारी कटुता भी सही है, नीरसता भी 
    और चुपके से भांपा है तुम्हे टिकटिकी लगाये
    अपार संसार में समां कर देखो कितनी  
    व्यर्थ दिखती है पहचान तुम्हारी 
    एक बार खुदको रोशन कर, 
    मिटा कर तो देखो 
    एक बार मुझमे समा कर तो देखो 

3. निर्भीक मुस्कान गुलाबी सुराही
    से अदरों पर
    बचपन की नादानी से छूट,
    खो जाओ इस यथार्थ में
    दुस्वप्न से बाहर?
    आसपास रहेंगे मासूमी के उजाले
    अकेलापन सताएगा जैसे
    टूटा दांत
    फिर भी खुड्डी की तरह
    मुस्कुरा देना जी भरके
    क्षणभर में पार कर लेना
    वो कई साल
 
4. रंगे  हुए  चेहरे  पर
   जमी  धुंध अरसे की
   जो  पाया , कैसे संभाला
   जो खोया  उसका  बकाया ?
   चरम पर दिखता 
   क्षितिज अभी भी दूर है
   इतने फलकों में
   मेरा मनसा कौन है?
 

Tuesday, April 12, 2011

आन्दोलनकारी कीड़ा

Photo: Joydeep Hazarika













हर जगह इतना शोर- शराबा | अभी तो इंडिया क्रिकेट वर्ल्ड कप जीता है|  रात भर बाईक पर बैठे नौजवानों की हाय-फाये तो दिन में भी पटाखों की धूम  | अभी इसी फील गुड में हंसी हंसी में रेवोल्युशन भी हो गया | और हुआ तो कैसे हुआ !!! शुरू में हर जगह अन्ना प्रेम और अब हर जगह भर्त्सना| हमारे अधपके जनतंत्र (जिसका डंका हम पूरे विश्व में बजाते है)  को एक नया सुपर -हीरो मिलते मिलते रह गया! सरकार के चेक्क्स और बेलेंसेस के महा घोटालो पर किसी ने अनशन करने की ठानी तो वो जनता के मसीहा और गरीब बेसहारों के सर्वे सर्वा हो गया|  अब इसमें गलत भी क्या है ? यह लडाई जब सैधांतिक मूल्यों पर थी तो किसी के "पाक- साफ़" नाम की अगुवाई में करोडो का दर्द उठाने में डर कैसा?  मौकापरस्ती की दूकाने तो लगेंगी ही, मामला व्यापक हो गया है ...इलेक्टोरेट तक पहुँच गया है...वोटरों का सवाल है | जन समूह थोडा समझदार जान पड़ता है इसलिए हवा का रुख पहचान कर सारे पतंगे वहीँ उड़ लिए हैं| "पाक- साफ़" छवि का विच्छेदन अंत में करेंगे क्यूंकि मामला सिर्फ़ छवियों तक सीमित नहीं है-  सफेदपोशी और काले दानवों के बीच के कई धुंधले मायने भी सामने आने चाहिए -

1 अनशन ब्लैकमेलिंग है - अलोकतांत्रिक है , असंवैधानिक (रिक्त स्थान भर लीजिये जो उचित शब्द लगे )
देखिये चरित्र की बात कौन कर रहा है? दुशासन-रुपी सरकार? ब्लेकमैलिंग की परिभाषा सरकार दे रही है - इस दलील पर जानते हैं हरिशंकर परसाई सरकार पर व्यंग्य के कितने बाण छोड़ते? सरकार सीना ठोक कर कालाबाजारी, घूसखोरी और हाई -लेवल घोटाले करती है- हम सबके सामने! अगर किसी आम आदमी को क्रांतिकारी कीड़ा काट ले तो वो अकेला मानव-मात्र सरकारी तंत्र का क्या बिगाड़ लेगा| ज़हर ज्यादा चुभा हो तो हथियार भी उठा सकता है- माओवादी लाल पट्टी सर पे बांध सकता है - लेकिन ऐसा नहीं किया| मूल्यों के रास्ते, लोगों को साथ लेकर, शिष्टता की सड़क पर चलकर सरकार की नींद उड़ाई-असंवैधानिक क्या है ? वो सरकार जो जवाबदेही की जगह "conspiracy of silence " की चादर ओढ़कर किसी तीसरी शक्ति पर सारा आरोप मढने में महारत हासिल कर चुकी है- उससे अगर सड़क पर बैठकर, शुद्धिकरण का हाथ पकड़ सामने से जवाब माँगा जाये- तो क्या हर्ज़ है?

2 . जनलोकपाल विधेयक की मांग से क्या होगा? अगले ही दिन भ्रष्टाचार काफूर हो जायेगा?
क्या जन्म लेने के अगले दिन ही आप इतने विद्वान हो गए थे की आपको लगता है की यह संपूर्ण समाधान है? IPC की धारा 302 से हत्याएं तो नहीं रुकी या 376 से बलात्कारी पैदा होने से नहीं रुके| यह एक्ट - भ्रष्टाचार निवारक नहीं लेकिन दंडात्मक ज़रूर है (punitive not preventive )| अगर किसी मुद्दे को लेकर संगठित न हो तो लक्ष्य के अभाव में दरारें उभरने लगती है|
अन्ना का आंदोलन संदेहास्पद क्यों है? क्योंकि समर्थक संदेहास्पद हैं? या संदेह इस बात का है की इसका फायदा किसको पहुंचेगा? इस जन-कल्याण के पीछे ज़रूर कुछ है! लेकिन क्या? संदेह है की भ्रष्टाचार ही क्यूँ चुना- इतने गंभीर मुद्दे है - बाकि (???) मुद्दे पहले क्यूँ नहीं सुलझाये? इस भ्रष्टाचार को तो टीवी रेटिंग भी नसीब नहीं होती - ललित मोदी को बुलाना चाहिए था ग्लैमर डालने के लिए! तभी विश्वसनीयता बनती- अभी तो संदेह है ? लेकिन संदेह किसका है ? मेरा आपका या कुछ प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों का ?

3 . अगर पूंजीपति इन मांगो को सही कहें- तो दाल में कुछ काला है, अगर मीडिया गुणगान करे (इस पर फिर से बात करेंगे) तो सब अजेंडा सेट्टिंग है, ज़रूर इस संघर्ष के पीछे commercial value छिपी है | सब प्रायोजित है | जो प्रायोजित है वो गलत है| अगर किसी तरीके से कोई भ्रष्टाचार विरोधी बातें पोपुलर करा रहा है,या उसी एक ट्रेंड , तमगा या ब्रांड बना रहा है - तो यह सरासर उपभोक्तावाद है | गारंटी तो कोई ले की जनलोकपाल विधेयक कीटनाशक है और सत्ताधारी बचाव मास्क ढून्ढ रहे हैं  | लेकिन गारंटी तो व्यक्तिगत लेनी होगी | अब सामने कौन आये? चलो एक गांधीवादी को आगे करते है और पीछे से फायर हम करेंगे|  फ़ॉर्मूला हिट तो सब फिट  | आम आदमी का मुद्दा बन जाये खास - यह तो भ्रामक द्विभाजन है|

4 . यह सिविल सोसाइटी की जादुई छड़ी इंडिया को सोने की चिड़िया बनाएगी?
जितने मुंह उतनी बातें | मीडिया वाले समझदार हैं या बेवकूफ वो खुद भी नहीं जानते | सुबह जंतर - मंतर को तहरीर स्क्वेर बनाते है और अन्ना को महात्मा कहकर शाम तक U -TURN लेकर आन्दोलन को  फेसबूकिया करार और अन्ना को कैमरा हंगरी कहते है| कैमरा दिखाया ही क्यूँ था पहले? आजकल बात आ गयी है मिडल क्लास वालों पर| अब यह मिडल क्लास प्रजाति का कोई प्रवक्ता तो है नहीं , मीडिया उनके साथ विरले ही सैर सपाटे पर जाती है, तो क्या उनका आन्दोलनकारी होना अछूत है? अब उनकी तरफ से सफाई कौन दे| मीडिया तो सिर्फ यह दिखने में मशगूल है की वही लोग आन्दोलन में बैठे हैं जिनका पैसे देकर भी काम नहीं हुआ| लेकिन यह तो सोचा ही नहीं की घर से निकल अप्रैल की गर्मी को बर्दाश्त कर में ये माध्यम वर्ग बैठकर अपने लिए कौनसी रोटियां सेक रहा होगा? सड़क पर तो तभी बैठते हैं जब जागरण होता है, मिन्नत मांगनी होती है अभी यह हक माँगना मिन्नत से कम  है क्या? कुछ तो कारण रहा होगा की यह नौबत आ गयी | गरीब मूलभूत अधिकारों वाले भारत निर्माण के चमत्कारों की प्रतीक्षा (जैसे फ़ूड सिक्यूरिटी) कर रहा है और अमीर वर्ग जमा किये पैसे को उड़ाने का तरीका ढून्ढ रहा हैं| बीच की मिडल क्लास ही असली  भ्रस्टाचार की दुर्घटना का सच्चा भुक्तभोगी है| वो नहीं आयेंगे तो कौन आयेगा? अब सूचना क्रान्ति के सूर्योदय में फेसबूक / ट्विट्टर उनको आम से खास बना रहा है तो एलीट मीडिया को इससे क्या हर्ज़ ? क्रान्ति के माध्यम तो अब यही होंगे , यह हाल ही मैं विश्व्यापी संघर्ष के उदाहरणों से साफ है| इसमें किसी प्रकार की शरर्मिंदगी कैसी ? जब इन्टरनेट पर  इतना जनाधार है तो समय आने पर क्या यह सड़कों पर भी उतरेगा | कौन रोक पायेगा इन्हें ?
5 . जाते- जाते
अन्ना  या आन्दोलनकारी किसी बात पर गलत है तो ये आन्दोलन भी गलत है | अगर वहां भारत माता के चिन्ह है तो ज़रूर यह संघ का कियाधरा है| अन्ना समर्थक आरक्षण विरोधी हैं| आरक्षण विरोधी दलित विरोधी हैं आरक्षण समर्थक दलित समर्थक वरना नहीं| सरल निष्कर्ष हैं| अन्ना को नरेन्द्र मोदी पसंद  हैं| एक और वाल  - जवाब कहाँ  है? इरोम शर्मीला की याद किसीको नहीं आई?  इस बिल से उन्ही जातियों को फायदा होगा जिन जातियों के सदस्य ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य है| अब इस कमेटी में भी वंशवाद  है | रामदेव  के योग शिविर अभी Halt पर हैं- यह वंशवाद गंभीर  मुद्दा है , योग -गुरु  का हस्तक्षेप ज़रूरी है | भीड़ के साहस और मनोबल के साथ   दुर्भाग्यवश  घटना हो  रही  है | समाधन जल्दी निकालना होगा इस पहले की लोग उब जायें और अन्दर लगी आग बुझ जाये|

यहाँ सिर्फ एक छवि नहीं एक साथ एक बुलंद आवाज़ चाहिए| हम सबकी |

Sunday, March 20, 2011

रवीश जी के साथ गुफ्तुगू


यह लिबास पुराना सा


सुगंध भरी साँसों की गर्मजोशी में
बयां हो रही रवानगी नए ख्वाब की
प्रत्युत्तर में खामोश कल्पनाओ के
मध्य में सारा आकाश बिछा है

कभी पलाशों के गुलिस्तान में
निर्झर सा बहता है मन मेरा
नज़रों की सुरंग के पीछे
सदियों में बीता आलोक छिपा है

धूप लगी है रूह के आँगन में
लालिमा से राग सुलगा लेना
उलझी सीढियों पर पाँव पसारे
इस शून्य में ब्रह्माण्ड रुका है

कैसी कोठरी के भीतर ढूँढा
यह लिबास पुराना सा
चार पहर के अंत हुए हैं
समझौते में सम्मान टिका है

कभी ठहराव कभी खींचतान है

कभी ठहराव कभी खींचतान है
कभी दास्ताँ तो कभी विराम है
कभी रुकी सी हवा कभी पुरवाई का अभिमान है
कभी अतीत का निशान कभी सोच की उड़ान है
कभी राहेगुज़र में तू हमसफ़र है तो
कभी यह कारवां अकेला अपना जहान है
कभी ठहराव कभी खींचतान है




Sunday, January 30, 2011

यह रेसिलिएंस क्या होता है?

काफी अरसा हो गया है फेसबुकिया हुए | अब तो जैसे फसबुक ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गयी हो | नोटीफिकेशंस आते हैं: कोई फलां गाना गा रहा है, कोई ऑफिस में मक्खी मार रहा है, कोई बॉस पर भड़ास निकाल रहा है, किसी की प्रेमिका शादी को राज़ी नहीं हो रही, कोई बारिश में पकौड़ो का स्वाद चख रहा है तो कोई पार्टी में पहनी नयी ड्रेस की फोटो प्रोफाइल पर लगा रहा है| दुनिया नयी धुरी पर घूम रही है| हर कोई आप पर नज़र रखे है| आप भी उस gaze या नज़र के हिमाकती हैं, सबको अपने भीतरी संसार के दर्शन कराते है, बस एक क्लिक के साथ | खैर, काफी कुछ जान पड़ता है आपके बारे में फसबूक से| आपका दर्शन, सोच , समझ , विचार या विचारहीनता |

आजकल बड़े जटिल दिनों से हमारा देश गुज़र रहा है| भ्रष्टाचार के नए-नए अध्यायों से रोज़ अवगत हो रहे है| देश हमेशा की तरह भगवान भरोसे ही चल रहा है लेकिन फेसबुक पर इस दुर्भाग्यपपूर्ण स्थिति को 'like ' करने वालों की कमी नहीं है| हज़ार करोड़ों का कॉमनवेल्थ खेल घोटाला हमारे सामने होता है और हम मूक दर्शक बने एक टॉयलेट पेपर रोल को 12000 रुपये में बिकते सहन कर लेते है, ऐसे ही 2G घोटाला होता है और हम टाटा डोकोमो की नयी धुन को youtube पर like करते हैं क्योंकि 2G से हमें क्या? किसी और की जवाबदेही है| जवाबदेही तो तब बनेगी जब प्रश्न उठाया गया हो!

आदर्श इमारते बनायीं जा रही है और हम ठगे से खड़े हैं| मुख्यमंत्री ज़मीन घोटालों में लिप्त हैं लेकिन हम अपने घर के नीचे अपनी ज़मीन दबाये आराम से सो रहे है| महंगाई डायन कमर तोड़ रही है लेकिन बस सहे जा रहे हैं - जैसे पानी में डुबकी लगाये पीठ पर गीली रूई का बोझ कोई गधा उठा रहा हो| अपनी दुर्दशा का कारण हम outsource करने की कोशिश करते रहते है| कभी झगडालू बनके DTC बस में गाली गलोच कर दी तो कभी टीवी प्रोग्राम में SMS कर भ्रष्टाचार पर कमेन्ट भेज दी| सबसे प्रिय और आसान रास्ता है फसबूक पर रेसिलिएंस दर्शाने का | यह रेसिलिएंस क्या होता है? सहनशीलता? वह ताकत जो हमें चुप रहने पर मजबूर करती है? हमारा मध्यमवर्ग इस रेसिलिएंस के लिए ही तो दुनिया भर में मशहूर है| कुछ भी आज़मालो मगर टस से मस नहीं होता| सहता जाता है सहता जाता है| सहनशीलता सीमा लांघती जाती है, और मुंह बंद किये यह बेशर्म समाज अपनी मेहनत से कमाए पैसे पर होते कुकर्म अपनी आँखों के सामने देखते हैं|

सबसे ज्यादा दुःख होता है युवाओं की लाचारी पर! लाचारी कहूं या आलसीपन या खुद्दारी की कमी| काला धन स्विस बैंको में जमा है लेकिन जागरूक होने का सबूत हम यहाँ सिर्फ फसबूक status लिखकर करते हैं| असल में कुछ करते नहीं है| सारी ज़िम्मेदारी से मुक्त| बाकी सब चीजों के लिए इंतज़ार नहीं होता लेकिन देश के लिए कुछ करने का हौसला और समय अभी दूर है| सारा समय तो friends बनाने में निकल जाता है| मैं नहीं मानती की यह सहनशीलता है, यह सिर्फ और सिर्फ आलसीपन है| या बुजदिली| इस रेसिलिएंस का घड़ा कब भरेगा यह पता नहीं|

निराशावादी नहीं होना चाहती इसलिए इस लेख का अंत फेसबुक पर ही एक दोस्त की दी हुई चेतावनी के साथ कर रही हूँ:



"अगर आप यह पढ़ रहे हैं तो यह एक चेतावनी है आपके लिए| जो कुछ भी बकवास इस चेतावनी में पढेंगे वो आपकी ज़िन्दगी के कुछ और पलों को फिजुलखर्च कर देगी | कोई और बेहतर काम नहीं है आपके पास इसको पढने के अलावा? या आपकी ज़िन्दगी इतनी खली है की कोई बेहतर तरीका नहीं है जीवन यापन का? किसी सत्ताधारी के प्रभुत्व से इतना प्रभावित क्यूँ रहते हैं की उसको आदर और विश्वसनीयता प्रदान करते हैं? क्या वो सब पढ़ते हैं जो आपको पढना चाहिए? वोह सोचते है जो दूसरे आप पर थोपते हैं? वह खरीदते है जिसकी दूसरे आवश्यकता व्यक्त करते है? अपने घर से बहार निकालो! बेफिजूल की चीज़ें खरीद के घर मत भरो! टीवी बंद करो| एक लड़ाई शुरू करो! साबित करो की तुम जिंदा हो! सक्रिय हो! अपनी बची कुची मानवता की मांग करो, किसी सरकारी फाइल में आंकड़े बनने से पहले| मुक्त हो जाओ| चेतावनी दी गयी है|"

Wednesday, January 12, 2011

अबूझ काल्पनिक परोक्ष दर्पण के भीतर झांकना चाहा है
अपने प्रतिबिम्ब में किसी अनजान को घूरते पाया है
शीशे की मनमानी है या मन के अंधेरो की छाया
इतने चेहरों को पारदर्शी कर न जाने कितने राजों को पीछे छुपाया है...

Friday, December 10, 2010

ताउम्र सवालों के मुक्कदम्मे
दिलों में लड़ते रहे
जवाबों की गठरी दर्द में छुपा
आप हमें हराते चले गए

Wednesday, November 17, 2010

हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

गर्माहट भरी मुस्कराती धूप में शर्माती लाल वो जाड़े की हर सुबह
आगोश में सिमटकर कानो में हलके से हंसाती वो कहानियां
जब साथ आँखें मूंदकर देखे सपनो से काफूर हो जाती ठिठुरन
और हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

हर रोज़ नयी तस्वीर बनाती हूँ आँखों की ओस से रंग चुराकर
रंगसाज़ से सजाती अल्हड बनाती मुझे आपकी झोली भर अशर्फियाँ
लफ्ज़ नहीं कर सकते इन्साफ बयां इस ख़ामोशी के इकरार का
क्योंकि हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

अपरिपक्व समझ दामन से बांधे दुनियापरस्ती से दूर तलक
मखमली एहसास से हथेली छुड़ाती उँगलियों की नटखट रवानियाँ
साथ गाये गीतों में ढूँढती हमारी मदमस्त परछाईयों की झलक
यूँ ही हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

होठों की कश्ती किनारों से दूर बहाती अरमानो की लहर
इठलाती है फलक पर डूबते सूरज की पलकों पर बिछी नादानियाँ
दिल में धडकने छुपाये कशमकश भरी संवेदनाओ को भेद रहे नज़रो के कहर
अब तो हर गुस्ताखी में एक याद बन जाती है आपकी बदमाशियां

इतने रूपों में विभोर करती पंख देकर उडान लेती ये मस्तानियाँ
आज फिर गुस्ताखी में एक याद बन गयी आपकी बदमाशियां

Monday, November 15, 2010

गुनगुने झागों में नाराज़गी जताती चुटकी-भर घुली मिठास
उस चीनी प्याले से उठ रही तन्हाई की खुशबू में
एक तरावट की गुंजाईश में बुदबुदाते नशे में लिपटे
आज फिर उमड़ आया प्यार अपनी ही नादानियों पर

Tuesday, October 12, 2010

रेफेरेंस पॉइंट


सांवली शाम धीरे से काली रात के आगोश में समाने जा रही थी| लेकिन अभी भी उसका सलोना सौंदर्य मुझे विस्मित कर रहा था| चांदनी उतनी ही हैरानी से उजली हो रही थी जैसे उसके उजले चेहरे की सुर्ख मुस्कराहट | ऐसे ही समय में मुझे उसकी याद बरबस आ जाती थी| कई बार कुछ गाने तो कभी दोस्तों से बतियाते हुए मिले "रेफेरेंस पॉइंट'...! कई बार कुछ रिश्ते ज्यादा बातूनी होते हैं| मेरा भी शायद बातूनी ही था लेकिन बातों का दौर दफतन ही शुरू नहीं हुआ था| समय लगा था, सिहरन-सी हुई थी, दर्द महसूस हुआ था, शर्म भी आई थी और ख़ामोशी से उसकी आँखों ने इकरार किया था|

खैर, उस रूमानियत की याद तब ताज़ा हो गयी जब उसी कैफ़े के आगे से गुज़रा जहाँ एक नादान जवान शाम साथ बितायी थी मीठी बातों और कॉफ़ी के गरम चस्के के साथ | समां ही कुछ ऐसा लगता था- इश्क हवाओं में है और मैं पूरे वेग से उसकी आँखों की गहराईओं में डूब रहा हूँ | ऐसी उपमा देना बहुत आसान है| अंग्रेजी में लोग इससे "so cliched" कहते हैं | लेकिन ये संस्कृति हमें बॉलीवुड ने सालों से दी है| अपने शहर से उसको मिलने के लिए ट्रेन पकड़ के आना बेवकूफी नहीं थी, उसका इंतज़ार करते हुए नीले आसमान की फलक पर सपने उकेरना, बार-बार फोन देखना की शायद एक मेसेज ही कहीं से अवतरित हो जाये और न जाने क्या क्या- भी मेरी नज़र में पागलपन नहीं था| प्यार जितना होर्मोंस का खेल है उतना ही जज़्बात से भरा है| चाहत "Procreation" के लिए होती है लेकिन पूरी दुनिया में एक वही शख्स वही आवाज़ वही गूँज वही कनखियों से इतराती आँखें वही बालों की खुशबू - वोह ही क्यूँ? कोई और क्यूँ नहीं? सोचते सोचते सामने लगे LED स्क्रीन पर नज़र पड़ी| चटकीले रंगों में कोई विज्ञापन चल रहा था| लैपटॉप का एडवरटीजमेंट था | वही साइज़ जीरो वाली हेरोइन जो मुझे ज़रा भी पसंद नहीं| सोच ही रहा था की वो आ गयी- भरी भरी सी कमसिन आकृति सामने से उभरी ठीक सबवे से ऊपर आते हुए | समय जैसे शून्य हो गया| आँखों में आँसूं आ गए लेकिन नयनो का जलाशय भरा नहीं| धडकनों की आवाज़ इतनी तेज़ थी की लगा कहीं आस-पास वालो को सुनाई न दे| सब ख्वाब जैसा था- जज्बातों का उमड़ता सैलाब| कुछ लम्हों तक सिर्फ उसको देखता ही रहा - वोह मुझे देखकर धीरे से हँसती रही...आँखें नीचे की..उसकी बैचनी और डर दोनों झलक रहे थे| उसके आगे के दो दांत गिलहरी से थे ...

कालेज में पढ़ा था सआदत हसन मंटो को "किसी लड़के को लड़की से इश्क़ हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं देता"...मुझे लगा था की क्या वाहियात बात की है| आज जब वैसी ही शाम में बैठा था, उसी कैफ़े के सामने तो नज़र पड़ी वहीँ पटरी पर चमकते हुए झोलों को बेचती उसी शाम वाली औरत पर| उसका बेटा अब शायद दो साल का हो गया था वो भी पास में ही खेल रहा था| वो कुछ ही दूरी पर बैठी थी जहाँ मैं रूककर बैठ गया था| उसको देखकर याद आया की कैसे उस दिन कैफ़े से बाहर निकलते हुए मुझे उसके दूध पीते पतले दुबले बच्चे पर दया आ गयी थी- मैंने उसे रुपए देने चाहे थे| पटरीवाली ने मुझे घूरते हुए बोला था साहब भीख नहीं लूंगी कुछ खरीद लो| मेरा इशारा समझ कर वो शोख अदा में बड़ी बेबाकी से बोली मैं खरीदूंगी और मैं ही पैसे दूँगी| मुझे "MCP" कहकर चिढाती थी| दिल्ली के विख्यात फेमिनिस्ट कालेज से जो थी| आज मैं यादों में खोकर अजीब सी मुस्कान से उस पटरीवाली को देख रहा था| उसने मुझे देखा और कड़े से शब्दों में टोका- 'नए हो क्या दिल्ली में?' फिर मुझे ध्यान से देखने लगी| मुझे लगा शायद पहचान गयी| फिर बोली - झोले ले लो साहब दिल्ली के बुद्धिजीवी यही खरीदते हैं | नज़र दौड़ाई लेकिन जैसा रंगीन झोला उसने खरीदा था वो मिला ही नहीं| मिलता तो ले लेता| शायद वैसा एक ही बना था|

फिर कैफ़े का दरवाज़ा खुलने से अन्दर से AC की हवा बाहर आई| ध्यान उसी जगह पर चला गया जहाँ मैं उसके साथ बैठा था| आज वहां दो विदेशी आदमी बैठे थे| उनके हाथों में गाइड बुक थी दिल्ली की| उस शाम उसकी उँगलियाँ मेरी उँगलियों को छू रही थी| मैं उसे बता रहा था की कैसे मेरे शहर में एक ही मॉल है और कैसे वहां सडको पर बिना हेलमेट के लोग पूरी रफ़्तार में बाइक चलाते हैं| उसने पूछा की तुम भी चलाते हो बिना हेलमेट के तेज़ रफ़्तार में? मैंने कहा नहीं मेरी बाइक में डिस्क ब्रेक हैं | फिर वो हँसी और बोली जब तुम बोलते हो तो तुम्हारे नीचे वाले होठ हिलते है ऊपर वाले सिर्फ स्थिर रहते है| मैंने सोचा मेरी बुल्लेट (मेरी बाइक जो उसे ज़रा भी पसंद नहीं थी) से बात हठकर मेरे होठों पर कैसे आ गयी? यह उसकी एक और रवानगी थी- वो इतने रंगों से भरी हुई थी- इतनी इन्द्रधनुषी बातें सिर्फ वही कर पाती थी| मैं बस उसको चपलता को पसंद- बहुत पसंद करता था| उसने कहा यही खूबी जिसमे बात करते समय सिर्फ नीचे के होंठ हिलें, राजसी शान की निशानी है, इंग्लैंड में राजा और उनके वंशज ऐसे ही बोलते है| बिलकुल तुम्हारी तरह! आज भी कई बार आईने में देखता हूँ की क्या मैं भी वंशज लगता हूँ कहीं से?

शाम विलीन हो रही थी रात में - थोड़ी ठंडक थी- लेकिन यादों की गर्मी जला रही थी अन्दर- पता नहीं सुकून दे रही थी की क्षीण कर रही थी| पीछे मुड़कर फिर उसी टेबल पर नज़र रुकी| अब वहां एक लड़का और लड़की बैठे थे | लड़की कुछ बोल रही थी फिर सिर हिला रही थी| लड़के के चेहरे पर नए प्यार का खुमार चिपका था| मैंने उसके इश्क को ज़ुकाम के बराबर भी अहमियत नहीं दी| लडकी को दोबारा देखा- उसके आगे के दांत गिलहरी से थे...

Tuesday, July 6, 2010

5 जुलाई का भारत बंद


अरे महंगाई क्या किया हरजाई !
जनता के नाम से की अगुआई
यहाँ शोर मचा, वहां आग लगायी
और विपक्ष से निकल पड़े लेफ्ट- भाजपाई

धरना प्रदर्शन, चीख पुकार
फेंके पत्थर, तोड़ी बसें हज़ार
चक्का जाम , करोडो का नुक्सान
क्या इससे गरीब के हिस्से आई मुस्कान?

भारत बंद या बंद भारत का आह्वान
पर महंगाई की ओट में अपना गुणगान?
कौन करे इस बंद का भुगतान?

मंदी से पैदल है अर्थ-व्यवस्था
उसपर निठल्ली सरकार की सुप्त-अवस्था
महंगा राशन, न फसल, न खेती
हर तरफ सिक रहीं बस राजनीतिक रोटी

अरे नेताओ शांत प्रदर्शन करके दिखाओ
कभी प्रभात फेरी, पद यात्रा भी आज़माओ
भूख हड़ताल है बेहतर तरीका
बिन कामकाज रोके प्रदर्शन का सलीका

आमरण अनशन से शक्ति प्रदर्शित करने का दौर कुछ और ही था
ऐ.सी. में सैर करते भ्रष्ट रस में डूबे नेताओ का असाधारण आम-आदमी प्रेम कुछ और ही है!

Monday, June 14, 2010

गंतव्य


एक कौंध सी गिरी वो
मिथ्या के कम्पन में आहट हुई
मन में उठती चुप्पी धीरे-से खुली
अथाह अमर श्रोता-सी भौचक्क मानसी

असीमित आस्था का सागर-मंथन हुआ
आवाज़ का पराग फूल-सी रूह को चख गया
सृजन हुआ, निर्भय मन हुआ

कुछ संकोच में, कुछ कल्पना में
गीत-सी मदमस्त वह निरंतर बढती रही
अब ठिठकन न थी, पड़ाव-दर-पड़ाव
अनाम सम्प्रेषण और आलौकिक शब्द-जाल

दरख्तों से निकलती रौशनी जलाने लगी
गति-शब्द-चाल में वो रूपक सी व्यक्त हुई
अर्थ-निरर्थ, उन्मुक्त-बाध्य
रंगमंच अनावृत करता उसका गंतव्य

Saturday, June 12, 2010

न सावन हरे न भादों सूखे


(इस रचना में मुहावरों और प्रचलित लोकोक्तियों का भरपूर प्रयोग किया गया है)

ज्योंही श्रीमान नाथूराम चूरन प्रसाद नाई की दूकान से सर मुंडवा कर निकले त्योंही आसमान से ओले बरस पड़े | अब गली-कूचो से तमाशा देख रहे बच्चे हँसते-हँसते लोटपोट हो गए| लेकिन हमारे गाँधी-भक्त चूरन प्रसाद जी आँखें फेरकर गुस्सा पी गए| नाथूराम जी इधर-उधर की हांकने के बजाये बड़े ही शांत स्वाभाव के व्यक्ति ठहरे| किसी के कान भरना किसी पर कीचड उछालना या किसी की राह में कांटे बिछाकर अपना कलेजा ठंडा करना उनकी बस की बात कहाँ ! वो बस अपनी खिचड़ी अलग ही पकाते|

टपाटप ओलों से होती दुर्दशा देख खान चाचा ने उन्हें अपनी छतरी के नीचे सर छुपाने का आमंत्रण दिया| ज्यादा अगर-मगर न करते हुए वह खान चाचा की बात मन गए| मुंह से निकला 'थैंक यू' जो किसी गागर में सागर से कम थोड़े ही था| "मियां अब तो ईद का चाँद हो गए हो, अब तो चिराग लेकर ढूढना पड़ता है|"

"बस यूं ही" दो टूक जवाब दे दिया|

"फिर भी सावन में बाल हटवा कर उलटी गंगा क्यों बहा रहे हो?" खान चाचा ने पूछा| पहले तो नाथू राम जी ने आँखें चुरा ली फिर दबे स्वर में बोले- "शोक में"|

"अमां किसके शोक में? "

"मेरे साले के ससुर के चाचा के पुत्र के बहनोई चल बसे"| "ओह हो हो" खान चाचा को मिटटी के माधो नाथू राम पर खूब हंसी आई परन्तु हवा का रुख पहचानते हुए बोले- " या अल्लाह! अनहोनी कब हो जाये पता नहीं चलता| बहुत ही करीबी रिश्तेदार मालूम पड़ते थे|"

"नहीं| लेकिन जब सभी उनके स्वर्ग सिधारने पर सब फूले नहीं समा रहे तो मैंने सोचा मैं ही शोक मन लूँ|"

"ख़ुशी? भई क्यों?"

"असहनीय कवि थे - नाम था छप्पन भोग" नाथू राम बताने लगे-

"पर ऊँची दुकान फीका पकवान| जहाँ जाते वही जीत आते क्यूंकि बाकी सभी कवि रफूचक्कर हो जाते| उनकी कवितायें भी ढाक के तीन पात सामान होती|
एक महाकाव्य संगोष्ठी में कविता की कुछ मुरझाई पंक्तियाँ ऐसे सुनाई-
दिल में लगी सुई ...दिल में लगी सुई
ऊई ऊई उई ....

उनके कवि सम्मेलनों में तांता बंधने के बजाय आयोजको के लिए भागने और डूब मरने की नौबत आ जाती| कोई भी उनकी कविताओं की धज्जियाँ न उड़ा पाता| बस सब दुम दबाकर भाग खड़े होते| न तो वे किसी निन्यानवे के फेर में पड़े थे न ही किसी को नीचा दिखाना चाहते थे बस कविता-रुपी परायी आग में कूदना चाहते थे| फिर भी घरवालों और पड़ोसियों की नींद हराम कर दी| घरवालो और श्रोताओं ने उनके स्वर्ग सिधारने की प्रार्थना ही नहीं प्रयत्न भी किये|

खूब पापड़ बेले, खून-पसीना एक किया| यहाँ तक की धरना भी दिया| ज़हर देते तो उनका उपवास हो जाता , सुपारी देते तो किसी और बन्दे का नामो-निशां मिट जाता परन्तु छप्पन जी का बाल भी बांका न होता| जाको राखे साईयाँ मार सके न कोय |"

"फिर काल के ग्रास में कैसे समाये?" खान चाचा ने पूछा|

" कविता के चक्कर में ही! बालकनी में बैठे कविता लिख रहे थे| एक तेज़ हवा का झोंका आया और सारे कागज़ उड़ा ले गया| जान से ज्यादा प्यारी कविता की यह दशा देखी न गयी| खुद भी सांतवे माले से 'बंजी-जम्प' कर बैठे बिना रस्सी के|

होनहार बिरवान के होत चिकने पात| हाथ में कविता का कागज़ तो आया पर फिर कभी होश नहीं आया|

कविता की हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ कुछ यूं थी-
साल बीत जाता है
फिर आती है होली
तंगहाली कम न थी
उसपर भी तुमने कुर्ती भिगोली
अब सर्फ़ पावडर कहाँ से लाऊंगा?
घडी डीटरजेंट से ही काम चलाऊंगा"

घर पहुँच कर खान चाचा विचारने लगे- नाथूराम का पूरा कुनबा ही विचित्र है- न सावन हरे न भादों सूखे|